Saturday, October 18, 2008

प्रभु कितनों को कितनी बार माफ करेंगे!

प्रभु कितनों को कितनी बार माफ करेंगे!

-अनाम
जैसा कि हर शहर सिर्फ़ अपने निवासियों की नज़र में होता है अब तक रायपुर बेशर्म था सिर्फ़ रायपुर वालों के लिए। लेकिन इस घटना ने इसे अब राष्ट्रीय स्तर का बेशर्म बना दिया या कहें कि न केवल राष्ट्रीय स्तर बल्कि मानवता के स्तर पर भी। घटना इस तरह की पहले गुवाहाटी में भी हो चुकी है। गुवाहाटी की घटना का संदर्भ मुझे याद नही/मालूम नही। पर रायपुर की घटना का संदर्भ मुझे मालूम है।शहर के एक मोहल्ले के एक अपार्टमेंट में एक स्त्री अपने दुधमुंहे बच्चे और अपनी रिश्तेदार लड़कियों के साथ रहती है। स्त्री पहले पीटा एक्ट के तहत गिरफ्तार हो चुकी है पीटा एक्ट अर्थात ज़िस्मफरोशी का कारोबार। स्त्री का कथन है कि वह अब यह सब छोड़ चुकी है, मोहल्ले वालों का कहना है कि स्त्री के कारण मोहल्ले की आबो-हवा खराब होती जा रही है। वो ऐसे कि यह स्त्री अपने घर मे मौजूद अन्य दोनो लड़कियों/स्त्रियों के साथ बालकनी पर बैठकर आते-जाते लड़कों/पुरुषों को इशारेबाज़ी करती रहती हैं। मोहल्ले वालों के अनुसार उन लोगों ने इस बाबत कई बार पुलिस को खबर की लेकिन कोई कारवाई नही हुई।बताया जाता है कि एक अप्रैल की रात को भी ये महिलाएं अपनी बालकनी पर बैठकर नीचे सड़क पर आते-जाते लोगों को इशारेबाज़ी कर रही थीं। ऐसे ही एक युवक को इशारेबाज़ी कर उपर बुलाया गया। जब वह युवक उपर पहुंचा तो महिलाओंम और उनके साथी एक लड़के ने डरा-धमका कर उसे लूटना शुरु कर दिया गया। लड़के ने विरोध स्वरूप शोर मचाया और तब मोहल्ले वाले वहां पहुंचे।मोहल्ले वाले वहां पहुचें और उन्होने अपना खेल शुरु किया। मोहल्ले वालों का आक्रोश इतना ज्यादा था कि उन्होने इस महिला और उसके साथी पुरुष के साथ साथी महिलाओं को मारा-पीटा। इसके बाद अति यह हुई कि बचते हुए वह महिला नीचे सड़क पर आ गई, मोहल्ले के पुरुषों की आदिम प्रवृति ने उसका कुर्ता और अंदरूनी वस्त्र फाड़ डाले, महिला टॉपलेस हो कर अपने को बचाने रोती हुई सड़क पर भागती रही।मीडिया को खबर मिल चुकी थी,न्यूज़ फ्लैश होने लगा था,टीवी चैनल के कैमरे लग गए थे,लड़की टॉपलेस सड़क पर दौड़ती दिख रही थी, और दिख रही थी हम पुरुषों की आदिम प्रवृति टॉपलेस की गई सड़क पर दौड़ती एक ऐसी महिला के रूप में जो पहले कभी वेश्यावृति में संलग्न रही थी!!भीड़ का कोई तंत्र नही होता। नक्कारखाने मे तूती की आवाज़ का क्या असर होता है?ऐसे मौके पर किसी ने कपड़े फाड़े जाने का विरोध किया भी हो तो क्या किसी ने सुना होगा?पता नही मेरे पड़ोस में ऐसी महिलाएं रहने आए और उनकी ऐसी हरकतें जारी रहे बालकनी पर बैठकर इशारेबाज़ी करने वाली,तो मेरी क्या प्रतिक्रिया होगी तब। आप अपनी कहें………

ठीक-ठाक: कभी-कभी

ठीक-ठाक: कभी-कभी

दीपावली तेरा आना मंगलमय हो........

दीपावली तेरा आना मंगलमय हो........दीपावली के दो दिन पूर्व मै घर के बहार शाम को बैठकर समाचार पत्र पढ़ रहा था!चाय की चुस्कियों के साथ इसका आनंद दुगुना हो रहा था !तभी मैंने कुछ शोर सुना !बच्चे दीपमालिका -दीपमालिका चिल्ला रहे थे,मैंने सोचा बच्चे झगडा कर रहे होगे !लेकिन देखा की दीपों से सजी सारे मुहल्ले को जगमग कर रही थी !चेहरे पर अलौकिक तेज ,राजसी वस्त्र पहने दीपमालिका मेरे घर की तरफ आ रही थी!मैंने कहा-दीपमालिके तेरा आना मंगलमय हो......!तुम्हे तो दो दिन पहले आना था,पहले कैसे आ गई?वह बोली-हमारे देश के नेता भी तो बिना बताये कही से कही पहुच जाते है!अब आडवाणी जी को ही देख लो जन कही हेलीकाप्टर रास्ता भटक गया सो लखनऊ पहुच गए,फिर मै क्यों नही भटक सकती हूँ?मैंने कहा-भगवान् राम पूरे चौदह वर्ष बनवास बिताकर वापिस अयोध्या लौटे थे तुमने एक साल पूरा नही बिताया और दो दिन पूर्व ही आ गई?उसने जवाब दिया अब लोग भगवान् राम को नही जानते है!अब करूणानिधि जी को ही देख लो कहते है राम एक शराबी था,क्या सबूत है की राम नाम का कोई व्यक्ति था ?अब भाई सबूत तो इस बात का भी नही है कि उनका कोई बाप या दादा था,खैर छोडो अब तो लोग फ़िल्म "मै हूँ ना "के मेजर राम शाहरुख़ खान को जानते है!कुछ दिनों में लोग राम कि कसम कि जगह अभिनेताओं कि कसम खायेगे!जैसे शाहरुख़ की कसम,अमिताभ की कसम,मिथुन दा की कसम वगैरह वगैरह.......राम भगवान् के रूप से तो कब के हट चुके है,अब तो वे चुनावी मुद्दा और राजनीति की सियासत का अंग बन चुके है,कभी राम मन्दिर,तो कभी रामसेतु!सभी दल राम के भरोसे राजनीति कर रहे है!राम का नाम लोग जाने या न जाने लेकिन इन राजनेताओं को जरूर जानेंगे!राम का नाम चमके या न चमके इनके कपड़े और राजनीति जरूर चमकना चाहिए!मैंने फिर पूछा -इस बार कौन कौन सी खुशियों kee सौगात लेकर आई हो?शेयर बाजार की की उठा पटक,कई बैंकों का दिवालियापन,जिनका पैसा डूब रहा है उनको हार्ट अटैक,तथा विधानसभा चुनाव में जो लोग जीतेंगे उनके लिए तो पूरा पांच साल का प्रीमियम बोंड है!चुनाव में थोड़ा खर्च करो और चुनाव जीतने के बाद पाँच साल तक ऐश!उनकी चार पीडी आराम से जिन्दगी काटेगी,जो हारेंगे उनको सत्ता से बेदखली और राम की तरह पाँच वर्ष का वनवास !लेकिन वे चुप नही बैठेंगे ,कहीं न कहीं से जुगाड़ लगा कर या तो संगठन में चले जायेंगे या दूसरे राज्य में!जैसे अपने दिग्गी राजा को देखो पिछले चुनाव में हार के बाद बोले की प्रदेश की सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लेंगे, लेकिन देखो तो संगठन का पड़ संभाल रहे है!यू।पी.की कमान तो उनके पास है ही अब एम्. पी. में फिर से घुसपैठ कर रहे है!तभी पीछे से एक मंत्री जी आ गए!मंत्री जी बोले-महोदय,मैंने अपनी सरकार में जितना घोटाला किया हैउन सबकी ख़बर समाचार पत्र में नही छापनी चाहिए!इसके एवज में एक बण्डल मुझे पकडाने लगे !मैंने पूछा ये क्या है?बोले ख़ुद ही देख लो!पाँच-पाँच सौ के नोटों की गड्डियां थि१मैने हाथ जोड़कर कहा मंत्री जी मै ऐसा नही कर पाऊँगा,अब जनता को केवल मीडिया पर ही तो भरोसा है,मीडिया ही है जो भ्रष्टाचार,अन्याय को मिटा सकती है!मंत्री जी नाराज हो गए और मुझे उमा खुराना,आरुशी हत्या काण्ड में मीडिया की भुमिका बताते हुए चले गए!अंत में यह भी कहना नही भूले कि तुम्हे देख लेंगे!मंत्री जी के जाते ही दीपमालिके भी जाने लगी!अपने साथ जितनी रोशनी प्रकाश लायी थी,लेकर चलने लगी!मैंने कहा-तुम कहाँ चली?बोली इस युग में जहाँ भ्रष्टाचारी,चोरी,झूठ,फरेब है वहां मै हूँ,मेरा वास है,इमानदार,कर्मठ,लगनशील लोगों के यहाँ में नही रहती !यदि मुझे पाना है तो पहले ये सारे गुन अपने में लाओ,तब मै ख़ुद-ब-खुद्तुम्हारे पास आ जाऊंगी!वह चली गयी!मै कभी देख रहा था समाचारपत्र की ओर,कभी अपने पुराने फूटे मकान की ओर जिसकी दीवारें और छत जर्जर हालत में थी,कभी दीपमालिके की ओर,जिसके आने पर मैंने कहा था तेरा आना मंगलमय हो..........................

Friday, October 17, 2008

पूंजीवाद

पूंजीवाद
-अनाम




बंदरवाला
हाथ नचा-नचाकर
बजाए जा रहा था डमरू
डिग-डिग, डम-डम
उछलता-कूदता, पीछे-पीछे
बच्चों का मस्तमौला झुंड !

दिखी अट्टालिका सामने
डाल दी पोटली
लगा जोर-जोर से बजाने
डिम-डिम डमरू
गाने लगा साथ-साथ
नाच मेरी बुलबुल..!

होने लगी
चवन्नी-अठन्नी की
पतझड़-सी बारिश
हनुमान जी समझकर
खिलाने लगे लोग बंदर को
केले-रोटी ।

भांति-भांति के करतब
दिखाए जा रहा था बंदर
बढ़ने लगी भीड़ धीरे-धीरे
एक क्षण के लिए रुका बंदर
पतली छड़ी पड़ी उस पर
सटाक…..!

बेचारे बंदर ने दृष्टि डाली
पहले अपने मालिक पर
फिर सिक्कों पर
नम हो गईं उसकी आंखें
शायद समझ गया था वह
पूंजीवाद का अर्थ..!

Thursday, October 16, 2008

दिल तो जनता के पास

दिल तो जनता के पास होता है
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अष्टभुजा शुक्ल
एवरेस्ट पर खड़े होकर, परियार प्रदेश की ओर मुंह करके, दोनों हाथ उठाकर राम जाने कहा जा सकता है कि तुलसीदास हिन्दू धर्म के ब्राह्मणवादी कवि हैं। इस तु... से लेकर हैं तक बनने वाले प्रत्याहार में निश्चित तौर पर तुलसी की उतनी लानत-मलामत भरी हुई है जितनी कि हिन्दी के किसी भी तथाकथित बुध्दिजीवी के लिए संभव है। कुछ क्षिप्र-ज्ञानियों के लिए तो तुलसी सिर्फ अवधी की सीमित बोली के कवि हैं। हिन्दी की व्यापकता के लिहाज से उनका मन, सोच, संवेदना और हृदय बहुत संकीर्ण है। विप्र-विरूध्द, शुद्र-अवमानना और स्त्री प्रतारणा इसके अकाटय प्रमाण हैं। बेशक, इस दृष्टि से तुलसी की आलोचना उचित है और होनी भी चाहिए। लेकिन तुलसी एक महान् कवि हैं इसलिए उनके पास भी अपने समय की तीखी आलोचना करने वाली व्यापक दृष्टि है। कलिकाल ही तुलसी का समकाल है। इसलिए 'कलि के कविन्ह करऊं परनामा' से शुरू होकर वे 'कलिकाल बेहाल भए मनुजा...' तक आर-पार देख पाते हैं। तुलसी तथाकथित साधु-संतों और तपस्वियों को न तो बख्शने वाले हैं और न ही गृहस्थों की दुर्दशा से आंख मूंद लेने वाले। इस कलि-कौतुक पर भी उनकी टिप्पणी गौरतलब है - तपसी धनवन्त दरिद्र गृही, कलि-कौतुक तात न जात कही। तो तात! तु शब्द से एक तौतातिक मत का ही निर्माण यहां हुआ है जिसकी चर्चा यहां व्यर्थ है।
सार्थक बात यह है कि तुलसी के लिए कलिकाल ही काल की एक अवधारणा है जिसका आंखों देखा हाल उन्होंने प्रसारित किया है। जिसे प्रज्ञाचक्षु भी देख सकते हैं। लेकिन सदा-सर्वदा जनसमाज बौध्दिक समाज से इत्तफाक नहीं रखता। बौध्दिक समाज जिस तरह सोचता है, जैसा पुलाव पकाता है, बिम्बों, प्रतीकों या मिथकों की जैसी व्याख्या करता है, जनसमाज कभी-कभी उसे सिर के बल खड़ा कर देता है और चीजों को अपने ही ढंग से बरतता है या 'डील' करता है। अपने गंवारूपन से भी वह आपके तीन-पांच को समझ लेता है। तुलसी लाख समझाते रह गए कि विभीषण ही लंका की नाक है, अपने राम का पक्का भक्त है, दांतों के बीच बिचारी जीभ जैसी उसकी दशा है, लंका के जिस राज को रावण दस बार अपने ही हाथों अपना गला काटकर पाया है उसे राम ने विभीषण को साभार प्रदान किया। अत: विभीषण को बहुत ही 'नीट एण्ड क्लीन' मानना चाहिए। पर जनता तुलसी की भी कोई दलील मानने को तैयार नहीं। वह विभीषण को अब भी 'घर का भेदिया, देशद्रोही या भ्रातृहंता' ही मानती है। जनकवि तुलसी विभीषण की छवि सुधारने की कोशिश में लगातार लगे रहे लेकिन 'मूढ़' जनता आज तक विभीषण को कटघरे में खड़ी करती रही। मैं सोचता हूं कि हिन्दुस्तान में असली दोगला कौन है? बुध्दिजीवी या जनता?
हिन्दुस्तान में हिन्दू लगातार असहिष्णु, बर्बर और हिंसक हुआ है। गुजरात नरसंहार की लोमहर्षक रपटें इसकी साक्ष्य हैं। ऐसी संगठित सांप्रदायिक हिंसा को कदापि जायज नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन उन्माद के ऐसे ध्रुवीकरण से क्षुब्ध हिन्दू बुध्दिजीवियों को भी अपने गिरेबां में झांकने की फुर्सत नहीं। वे अपने जनविश्वासों की जितनी अनुदार भर्त्सना और थू-थू जैसे ताल ठोंक कर करते हैं, जितना आक्रामक होकर कुठाराघात करते हैं, वे जनता की सोच और कल्पनाओं से बेखबर अपनी राजनीति के शिकार अधिक होते हैं। यह विचारणीय है कि कहीं बुध्दिजीवियों के बड़बोलेपन की प्रतिक्रिया में भी तो समाज इतना कट्टर नहीं होता जा रहा है? तुलसी अगर कट्टर हिन्दू कवि हैं भी तो वे अन्य संप्रदायों के विरूध्द एक शब्द भी नहीं बोलते और अपने समकाल में नहीं बोलते। और बोलते हैं तो 'नहिं जानत हैं अनुजा-तनुजा' तक। ऐसी साफगोई कि दिल का एतबार क्या कीजै? हिन्दू बुध्दिजीवी खुद को ऐसे निरपेक्ष 'मनुष्य' के रूप में पेश करने को आतुर रहता है कि जनता उसके ढोंग से ऊब जाती है। इतना ही नहीं अपने विश्वासों पर अपनों द्वारा ही इतने तीखे हमलों से तिलमिलाकर भी उसके प्रतिहिंसक होने की संभावनाएं लगातार बनी रहती हैं। सांप्रदायिक विद्वेष को हवा देने वाली ताकतें ऐसी जनभावना को हर -हमेशा भुनाने की ताक में लगी रहती हैं और फौरी तौर पर अपने नापाक मनसूबों में कामयाब भी हो जाती हैं। शायद यही वजह है कि ऊपरी तौर पर तमाम चिल्ल-पों के बावजूद और सांप्रदायिक निर्मूलन के लिए हलकान दिखने वाले पहलवान कोई करामात दिखा पाने में असमर्थ सिध्द होते जा रहे हैं। आखिर सामाजिक सौहार्द्र क्यों कर इस तरह कम होता जा रहा है कि एक शांतिप्रिय समुदाय इतना उग्र और क्रूर नजर आने लगा है? कहीं हमारी नीयत में ही तो कोई खोट नहीं?
लेकिन आत्मालोचन भी एक बड़ा साहस है। अपनों और अपने समाज की रूढ़ियों और जड़ताओं को अनावृत करते जाने में भी बुध्दिजीवी की एक कारगर भूमिका होती है। तुलसी ने अपने समकाल में उन्हें पूरी शिद्दत के साथ प्रश्नांकित किया है। किंतु बहुत ही संयत ढंग से। लेकिन दिनकर जी ने ठीक ही कहा था -किंतु हाय। तप का वश चलता सदैव नहीं, पतित समूह की कुवृत्तियों के सामने। सामने अगर पतित समूह हो, नृशंस रूप से अमानुषिक और हिंसक हो तो सारा अनुनय- विनय अरण्यरोदन बनकर रह जाता है। ऐसी मनुष्यद्रोही शक्तियों का जमकर प्रतिरोध भी होना चाहिए और कटुतम प्रतिवाद भी। इस दृष्टि से हिन्दू बुध्दिजीवी मौजूदा परिदृश्य में साहसिक ही माने जाएंगे कि वे अपने समुदाय की धर्मान्धता पर और उसे हाईजैक करने की ताक में लगे कुटिल मनोरथों पर ताबड़तोड़ चोट कर रहे हैं। इस लिहाज से देखा जाए तो गैर हिन्दू बुध्दिजीवी मजहब जैसे संवेदनशील मुद्दे पर अक्सर बहुत ही लचीला रूप अख्तियार कर लेता है। एक खास एहतियात के साथ अपनी तकरीर पेश करता है ताकि लाठी भी न टूटे। उसके लिए महजब प्रमुख हो जाता है, बाकी चीजें गौण। खासतौर से हिन्दुस्तान के गैर हिन्दू बुध्दिजीवी मित्रों में ऐसी लाचारी अक्सर हां दिखती है। दीगर मुल्कों के रूश्दी, तस्लीमा, इस्मत आपा जैसे तरक्की पसंद लोग जैसे ही मजहब के घेरे से नुक्ता भर बाहर आते हैं, उनके सिर कलम करने के बख्शीश रख दिये जाते हैं। उनका सामाजिक बहिष्कार होता है, कातिलाना हमले होते हैं लेकिन हिन्दुस्तान के कौमी बुध्दिजीवियों का रूख अफसोसजनक रूप से बहुत ही ठंडा अथवा नपा-तुला होता है। उनके अल्फाजों में मजहब की भाप मिली रहती है। इस लिहाज से गौर करें तो पुराने भोपाल की बड़ी मस्जिद एक नायाब मिसाल है जिसके चौतरफा हिन्दुओं की दुकानें हैं और रहाइश मुसलमान भाइयों की और यह पहले ही कहा जा चुका है कि जन समाज सदा-सर्वदा बौध्दिक समाज से इत्तफाक नहीं रखता। वह अपनी ही तरह से जीता, सोचता और 'डील' करता है।
दरअसल जब बुध्दिजीवी भी नस्ली और मजहबी शुध्दता के प्रति बेहद ईमानदारी बरतता है तो सामान्य जनता भी उससे अपने फर्लांग कुछ और ही बढ़ा लेती है। आज जैसा आधुनिक विश्वसमाज बन रहा है, उसे देखते हुए जन्म शताब्दी वर्ष में हजारी प्रसाद द्विवेदी की ये पंक्तियां मील का पत्थर साबित होंगी - सब कुछ अविशुध्द है। शुध्द है तो केवल मनुष्य की जिजीविषा। संभवत: तुलसी भी उतने कट्टर हिन्दू और शुध्द ब्राह्मणवादी नहीं, जितना कि उन्हें सिध्द करने की प्रचेष्टा की जा रही है। उनके विद्रूपों पर कोई रबर न भी लगाया जाय तो भी वे पक्के और सच्चे जनकवि हैं। बुध्दिजीवी के पास दिमाग भले एवरेस्ट जितना ऊंचा हो, लेकिन दिल तो है दिल.... दिल जनता के पास होता है।
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अष्टभुजा शुक्ल
एवरेस्ट पर खड़े होकर, परियार प्रदेश की ओर मुंह करके, दोनों हाथ उठाकर राम जाने कहा जा सकता है कि तुलसीदास हिन्दू धर्म के ब्राह्मणवादी कवि हैं। इस तु... से लेकर हैं तक बनने वाले प्रत्याहार में निश्चित तौर पर तुलसी की उतनी लानत-मलामत भरी हुई है जितनी कि हिन्दी के किसी भी तथाकथित बुध्दिजीवी के लिए संभव है। कुछ क्षिप्र-ज्ञानियों के लिए तो तुलसी सिर्फ अवधी की सीमित बोली के कवि हैं। हिन्दी की व्यापकता के लिहाज से उनका मन, सोच, संवेदना और हृदय बहुत संकीर्ण है। विप्र-विरूध्द, शुद्र-अवमानना और स्त्री प्रतारणा इसके अकाटय प्रमाण हैं। बेशक, इस दृष्टि से तुलसी की आलोचना उचित है और होनी भी चाहिए। लेकिन तुलसी एक महान् कवि हैं इसलिए उनके पास भी अपने समय की तीखी आलोचना करने वाली व्यापक दृष्टि है। कलिकाल ही तुलसी का समकाल है। इसलिए 'कलि के कविन्ह करऊं परनामा' से शुरू होकर वे 'कलिकाल बेहाल भए मनुजा...' तक आर-पार देख पाते हैं। तुलसी तथाकथित साधु-संतों और तपस्वियों को न तो बख्शने वाले हैं और न ही गृहस्थों की दुर्दशा से आंख मूंद लेने वाले। इस कलि-कौतुक पर भी उनकी टिप्पणी गौरतलब है - तपसी धनवन्त दरिद्र गृही, कलि-कौतुक तात न जात कही। तो तात! तु शब्द से एक तौतातिक मत का ही निर्माण यहां हुआ है जिसकी चर्चा यहां व्यर्थ है।
सार्थक बात यह है कि तुलसी के लिए कलिकाल ही काल की एक अवधारणा है जिसका आंखों देखा हाल उन्होंने प्रसारित किया है। जिसे प्रज्ञाचक्षु भी देख सकते हैं। लेकिन सदा-सर्वदा जनसमाज बौध्दिक समाज से इत्तफाक नहीं रखता। बौध्दिक समाज जिस तरह सोचता है, जैसा पुलाव पकाता है, बिम्बों, प्रतीकों या मिथकों की जैसी व्याख्या करता है, जनसमाज कभी-कभी उसे सिर के बल खड़ा कर देता है और चीजों को अपने ही ढंग से बरतता है या 'डील' करता है। अपने गंवारूपन से भी वह आपके तीन-पांच को समझ लेता है। तुलसी लाख समझाते रह गए कि विभीषण ही लंका की नाक है, अपने राम का पक्का भक्त है, दांतों के बीच बिचारी जीभ जैसी उसकी दशा है, लंका के जिस राज को रावण दस बार अपने ही हाथों अपना गला काटकर पाया है उसे राम ने विभीषण को साभार प्रदान किया। अत: विभीषण को बहुत ही 'नीट एण्ड क्लीन' मानना चाहिए। पर जनता तुलसी की भी कोई दलील मानने को तैयार नहीं। वह विभीषण को अब भी 'घर का भेदिया, देशद्रोही या भ्रातृहंता' ही मानती है। जनकवि तुलसी विभीषण की छवि सुधारने की कोशिश में लगातार लगे रहे लेकिन 'मूढ़' जनता आज तक विभीषण को कटघरे में खड़ी करती रही। मैं सोचता हूं कि हिन्दुस्तान में असली दोगला कौन है? बुध्दिजीवी या जनता?
हिन्दुस्तान में हिन्दू लगातार असहिष्णु, बर्बर और हिंसक हुआ है। गुजरात नरसंहार की लोमहर्षक रपटें इसकी साक्ष्य हैं। ऐसी संगठित सांप्रदायिक हिंसा को कदापि जायज नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन उन्माद के ऐसे ध्रुवीकरण से क्षुब्ध हिन्दू बुध्दिजीवियों को भी अपने गिरेबां में झांकने की फुर्सत नहीं। वे अपने जनविश्वासों की जितनी अनुदार भर्त्सना और थू-थू जैसे ताल ठोंक कर करते हैं, जितना आक्रामक होकर कुठाराघात करते हैं, वे जनता की सोच और कल्पनाओं से बेखबर अपनी राजनीति के शिकार अधिक होते हैं। यह विचारणीय है कि कहीं बुध्दिजीवियों के बड़बोलेपन की प्रतिक्रिया में भी तो समाज इतना कट्टर नहीं होता जा रहा है? तुलसी अगर कट्टर हिन्दू कवि हैं भी तो वे अन्य संप्रदायों के विरूध्द एक शब्द भी नहीं बोलते और अपने समकाल में नहीं बोलते। और बोलते हैं तो 'नहिं जानत हैं अनुजा-तनुजा' तक। ऐसी साफगोई कि दिल का एतबार क्या कीजै? हिन्दू बुध्दिजीवी खुद को ऐसे निरपेक्ष 'मनुष्य' के रूप में पेश करने को आतुर रहता है कि जनता उसके ढोंग से ऊब जाती है। इतना ही नहीं अपने विश्वासों पर अपनों द्वारा ही इतने तीखे हमलों से तिलमिलाकर भी उसके प्रतिहिंसक होने की संभावनाएं लगातार बनी रहती हैं। सांप्रदायिक विद्वेष को हवा देने वाली ताकतें ऐसी जनभावना को हर -हमेशा भुनाने की ताक में लगी रहती हैं और फौरी तौर पर अपने नापाक मनसूबों में कामयाब भी हो जाती हैं। शायद यही वजह है कि ऊपरी तौर पर तमाम चिल्ल-पों के बावजूद और सांप्रदायिक निर्मूलन के लिए हलकान दिखने वाले पहलवान कोई करामात दिखा पाने में असमर्थ सिध्द होते जा रहे हैं। आखिर सामाजिक सौहार्द्र क्यों कर इस तरह कम होता जा रहा है कि एक शांतिप्रिय समुदाय इतना उग्र और क्रूर नजर आने लगा है? कहीं हमारी नीयत में ही तो कोई खोट नहीं?
लेकिन आत्मालोचन भी एक बड़ा साहस है। अपनों और अपने समाज की रूढ़ियों और जड़ताओं को अनावृत करते जाने में भी बुध्दिजीवी की एक कारगर भूमिका होती है। तुलसी ने अपने समकाल में उन्हें पूरी शिद्दत के साथ प्रश्नांकित किया है। किंतु बहुत ही संयत ढंग से। लेकिन दिनकर जी ने ठीक ही कहा था -किंतु हाय। तप का वश चलता सदैव नहीं, पतित समूह की कुवृत्तियों के सामने। सामने अगर पतित समूह हो, नृशंस रूप से अमानुषिक और हिंसक हो तो सारा अनुनय- विनय अरण्यरोदन बनकर रह जाता है। ऐसी मनुष्यद्रोही शक्तियों का जमकर प्रतिरोध भी होना चाहिए और कटुतम प्रतिवाद भी। इस दृष्टि से हिन्दू बुध्दिजीवी मौजूदा परिदृश्य में साहसिक ही माने जाएंगे कि वे अपने समुदाय की धर्मान्धता पर और उसे हाईजैक करने की ताक में लगे कुटिल मनोरथों पर ताबड़तोड़ चोट कर रहे हैं। इस लिहाज से देखा जाए तो गैर हिन्दू बुध्दिजीवी मजहब जैसे संवेदनशील मुद्दे पर अक्सर बहुत ही लचीला रूप अख्तियार कर लेता है। एक खास एहतियात के साथ अपनी तकरीर पेश करता है ताकि लाठी भी न टूटे। उसके लिए महजब प्रमुख हो जाता है, बाकी चीजें गौण। खासतौर से हिन्दुस्तान के गैर हिन्दू बुध्दिजीवी मित्रों में ऐसी लाचारी अक्सर हां दिखती है। दीगर मुल्कों के रूश्दी, तस्लीमा, इस्मत आपा जैसे तरक्की पसंद लोग जैसे ही मजहब के घेरे से नुक्ता भर बाहर आते हैं, उनके सिर कलम करने के बख्शीश रख दिये जाते हैं। उनका सामाजिक बहिष्कार होता है, कातिलाना हमले होते हैं लेकिन हिन्दुस्तान के कौमी बुध्दिजीवियों का रूख अफसोसजनक रूप से बहुत ही ठंडा अथवा नपा-तुला होता है। उनके अल्फाजों में मजहब की भाप मिली रहती है। इस लिहाज से गौर करें तो पुराने भोपाल की बड़ी मस्जिद एक नायाब मिसाल है जिसके चौतरफा हिन्दुओं की दुकानें हैं और रहाइश मुसलमान भाइयों की और यह पहले ही कहा जा चुका है कि जन समाज सदा-सर्वदा बौध्दिक समाज से इत्तफाक नहीं रखता। वह अपनी ही तरह से जीता, सोचता और 'डील' करता है।
दरअसल जब बुध्दिजीवी भी नस्ली और मजहबी शुध्दता के प्रति बेहद ईमानदारी बरतता है तो सामान्य जनता भी उससे अपने फर्लांग कुछ और ही बढ़ा लेती है। आज जैसा आधुनिक विश्वसमाज बन रहा है, उसे देखते हुए जन्म शताब्दी वर्ष में हजारी प्रसाद द्विवेदी की ये पंक्तियां मील का पत्थर साबित होंगी - सब कुछ अविशुध्द है। शुध्द है तो केवल मनुष्य की जिजीविषा। संभवत: तुलसी भी उतने कट्टर हिन्दू और शुध्द ब्राह्मणवादी नहीं, जितना कि उन्हें सिध्द करने की प्रचेष्टा की जा रही है। उनके विद्रूपों पर कोई रबर न भी लगाया जाय तो भी वे पक्के और सच्चे जनकवि हैं। बुध्दिजीवी के पास दिमाग भले एवरेस्ट जितना ऊंचा हो, लेकिन दिल तो है दिल.... दिल जनता के पास होता है।

कब तक...?

कब तक?भारत देश की वर्तमान परिस्थितियों को देखकर दिल में एक टीस उठी,जाग उठीएक कसक और उसी कसक को कलम से कागज़ पर उतार दिया .आशा है जरूर पसंद आएगी!एक रात को माँ का फोन आया कि बेटा में तुझसे मिलने कल आ रही हु !माँ कोलेने स्टेशन सुबह तडके ही पहुच गया,गाड़ी लेट थी सो गाड़ी के इंतजार मेंचाय पिने लगा !तभी भयावह सूरत,डरावनी शक्ल वाली एक औरत दिखाई दी,जिसकेबाल बिखरे हुए थे, माथे से लेकर पैर तक खून से सनी हुई थी, बदहवास सी वहऔरत छट पटा रही थी!उसके पैरों में पायलों कि जगह मोटी-२ बेडियाँ थी, हाथजल रहे थे, कपडे ऐसे कि शर्म भी शर्मा जाये,लेकिन चेहरे पर अलौकिक तेजथा,माथे की बिंदी उसके गाल पर चिपक गयी थी,वह रोना चाहती थी लेकिन आँखोंसे आंसू नहीं निकल रहे थे!वह अपने प्राण बचाने को चिल्ला रही थी, विलखरही थी,अपनी लाज बचाने को वह दौड़ती हुई चली आ रही थी!पत्रकार होने के नाते मैंने पूछ लिया आपकी दशा किसने की? मैंने भी बड़ाबेकार प्रश्न पूछा था जिसको अपनी जान के लाले पड़े हो और उससे उसकी कहानीपूछो, उसको सांत्वना देना और रक्षा करना तो दूर,उससे सवालो की झडी लगादी!इसमें मेरा कसूर नहीं था ,यह कसूर था नयी पत्रकारिता का जिसने TRP केफेर में उसकी पीडा, दर्द को भुला दिया जाता है और प्रश्नों की क़तर लगादी जाती है!उसने बताया कि जमीन के विवाद में पड़ोसियों से झगडा हो गया है,रिश्तेनातेदार तो दूर मेरे बेटों ने भी मेरा साथ छोड़ दिया है,बड़ा बेटा तोपड़ोसियों से मिल गया है और उसीने मेरी ऐसी हालत कराई हहै! दो छोटे बेटेबैठकर मजा ले रहे है,गाड़ियों से घूम रहे है,और अपनी शान-ओ शौकत में जीरहे है! मै भी नयी पीढी का पत्रकार था इसलिए पूछ बैठा कि आप कैसा महसूसकर रहीं हैं? उसने कहा कि जिसके बेटों ने उसके हाँथ जलाये हो,वह माँकैसा महसूस कर सकती है? जिन बेटों को नौ माह गर्भ में रखा, कष्ट झेला,गोदी में खिलाया, अंगुली पकड़ कर चलना सिखाया, पढाया लिखाया और उसी नेमेरे हाथ जला दिये अब मै कैसा महसूस कर सकती हूँ! मैंने उससे फिर सवालदगा आप अपने बेटों के लिए क्या कहना चाहती है?माँ का दिल तो विशाल होताहै!बेटा कैसा भी हो, माँ-माँ ही होती है,कहा मेरे बेटे हमेशा खुश रहे औरमें अपने बेटों को कामयाबी कि बुलंदियां छूटे देखना चाहती हूँ!मै चाहतीहूँ कि मेरी जमीन में हरी भरी फसल लहलहाए,चिडियां चाह्चाये, कोयल गीत गएऔर लोग ऐसा नजारा देखकर झूम उठे और खुश रहे!उसकी बात ख़त्म ही हुयी थी,मै फिर पूछना चाहता था कि आपके छोटे कपडे जोतन को नहीं ढक पा रहे है फैशन है या मज़बूरी!उतने में ही पीछे सेहमलावरों का जत्था आता दिखाई दिया,और वह औरत बचाओ-२ चिल्लाती हुई ,आगेचली गयी,शायद इस आस में कि कोई देवदूत आ जाये और इन कातिलों से उसकीरक्षा करे !मै दुखी मन से देखता रहा उस औरत कि ओर,जब तक वह नजर से ओझिलनहीं हो गयी!तभी आवाज आई किशन-किशन,मेरी माँ आ चुकी थी! मैंने उनको प्रणाम किया औरउनका बैग हाथ में लेकर घर वापिस चला आया ! उस आवाज में इतना दर्द,करुनाथी कि पत्थर भी पिघल जाये,लेकिन नहीं पिघले तो वो थे उन दरिंदों केदिल,जो महज कुछ जमीन और अपने अस्तित्व के लिए माँ पर हमला करते रहे! वोमाँ "कृष्णा कब आओगे" कि गुहार लगाती रही लेकिन कृष्णा उसकी कुछ मदद नाकर सका! क्यों कि कृष्णा को मिल गयी थी एक मसालेदार कहानी कल के लिए,जोकरा सकती थी उसका प्रमोशन,उसकी पदोन्नति!आखिर कब तक माँ की अस्मिता को गिरवी रख कर चलता रहेगा पदोन्नति का खेल?कब तक...?