Sunday, November 28, 2010

पत्रकारिता कॉलेज पी गया छात्रों का पैसा





कों खां क्या चल रिया हेगा?केन लगे,कन्ने कट गए,सर पर दे रिया हे मिला मिला के......झीलों की नगरी भोपाल का अपना एक खास अंदाज है .भोपाल शहर अपनी खूबसूरती के लिए पूरे देश में जाना जाता है.साथ ही पत्रकारों की उद्गम स्थली अगर भोपाल को कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.भोपाल में समय के साथ बहुत तरक्की हुई.....मध्य प्रदेश में इसे एजूकेशन हब की उपाधि मिली...तो कई प्राईवेट समूहों ने यहाँ अपना वर्चस्व कायम किया.....ऐसा ही अपनी एक अलग सल्तनत बनाये हुए पीपुल्स समूह...जो कि स्वास्थ्य,शिक्षा के क्षेत्र में निरंतर कदम बढ़ा रहा है ...मीडिया के बढ़ते ग्लैमर को देखते हुए पीपुल्स समूह ने २००७ में पीपुल्स पत्रकारिता शिक्षण संस्थान के नाम से एक पत्रकारिता महाविद्यालय की शुरुआत की.मध्य प्रदेश की पत्रकारिता से जुड़े कई नामचीन चेहरे इससे जुड़े.लेकिन अंदरूनी कलह और कॉलेज की गन्दी राजनीति के चलते धीरे धीरे ये सब लोग यहाँ से खिसकते गए.समस्या कॉलेज में पढाई की थी,प्रयोगात्मक रूप से छात्रों को सक्षम बनाने की थी.२००७ से करीब डेढ़ साल तक महाविद्यालय को सुचारू रूप से चलने का श्रेय तात्कालीन प्राचार्य विनोद तिवारी को जाता है.ये उनका व्यक्तित्व था कि वे व्यक्तिगत जिम्मेदारी पर या प्रबंधन स्तर पर छात्रों की हर समस्या को सुलझा लेते थे.लेकिन विनोद तिवारी के जाने के बाद कॉलेज की स्थिति 'धोबी के कुत्ते' की तरह हो गई.न अब वह घर का रहा और न घाट का......बी.एन.गोस्वामी,पंकज पाठक,संदीप श्रीवास्तव ...एक एक कर सबने प्राचार्य का पद संभाला...लेकिन फिर कॉलेज का अंतर्कलह...और फिर शुरू हुआ इस्तीफों का दौर...
अंत में समूह की प्रबंधन टीम का हिस्सा आस्मां रिजवान को कॉलेज के प्राचार्य का पदभार सौंपा गया ...अभी तक आस्मां रिजवान,पीपुल्स समूह के मैनेजमेंट कॉलेज में व्याख्याता के तौर पर पढ़ाती थी.ऐसे में जब बागडोर आस्मां रिजवान ने संभाली तो पत्रकारिता के कॉलेज को उन्होंने मैनेजमेंट कॉलेज की लाठी से हांकना शुरू कर दिया..शायद पत्रकारिता कॉलेज चलने का अनुभव उनमें नहीं था.वे शायद भूल गईं थी कि उन्हें लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की उद्गम स्थली को क्रियान्वित करना है...हर छात्र कल का लोकतंत्र की आवाज है.अपनी तानाशाही आदत से मजबूर आस्मां रिजवान ने पहले तो सत्र के बीच में ही महाविद्यालय की फीस में इजाफा कर दिया...जबकि विवरण पुस्तिका में ऐसा कुछ भी उल्लिखित नहीं था..छात्रों को को प्रवेश के समय पूरी फीस के बारे बता दिया गया था....यदि उन छात्रों को बीच सत्र में फीस बढ़ने की बात पता होती तो शायद कई छात्र यहाँ पर प्रवेश नहीं लेते...लेकिन एक साल की पढाई के बाद अचानक फीस में हुई बढ़ोत्तरी को छात्रों ने अपने भविष्य को देखकर स्वीकार कर लिया........२००७-१० के बीच बी.एस.सी.(ई.एम् )करने वाले छात्रों का कोर्स जून २०१० में समाप्त हो गया....छात्रों ने जब विद्यालय में जमा अपनी कोशन मनी की मांग की...तो महाविद्यालय प्रबंधन की और से उन्हें झुनझुना पकड़ा दिया गया.....जबकि महाविद्यालय में प्रवेश के समय छात्रों को जो विवरण पुस्तिका मिली थी उसमे साफ़ तौर पर महावि.कोशन मनी,पुस्तकालय कोशन मनी का जिक्र किया गया है ....
यशवंत जी कोशन मनी का मतलब पैसों की पुनर्वापसी होता है....लेकिन महाविद्यालय प्रबंधन ने छात्रों को ५०० दुपाये देकर चलता कर दिया....बस अपनी प्रबंधकीय आवाज़ से छात्रों की आवाज़ को दबाने की कोशिश की जा रही है...................बस तानाशाही रवैये से चल रहा है कॉलेज ....



-कृष्ण कुमार द्विवेदी

Saturday, October 30, 2010

रणभूमि बने गाँव

भारत देश गांवों का देश कहा जाता है...क्यों कि यहाँ कि ७०% जनता गाँव में निवास करती है...भोले भाले लोग,सुबह सुबह गाय भैसों को दुहने जाते ग्रामीण,पनघट पर पानी भरने जाती यहाँ की औरतें..हाँ जमींदारो के यहाँ और बात है..कोई नौकर लगा हो या घर में ही कुआं हो,बात अलग होती है...लेकिन ज्यादातर गाँवों कि पहचान यही होती है...खेत पर जाते किसान ...यहाँ के मौसम भी उतने ही सुहाने लगते है जितने यहाँ के लोग...कभी सर्दी,कभी गर्मी,बारिश और पतझड़......बारिश के जाते ही हिन्दुस्तान की फिजाओं में सर्दीली हवाओं ने दस्तक दे दी है.....एक बयार ठंडी हवाओ की चलना शुरू हो गई...खैर मौसम है तो बयार भी चलेगी..और ठंडक का एहसास भी होगा....२६ जनवरी १९५० को देश का गणतंत्र लागू किया गया....गांधी ने राम राज्य की परिकल्पना दिल में संजोई थी....लेकिन उन्ही के टाइटल का प्रयोग करने वाली एक तानाशाही महिला ने उनकी इस सपने की धज्जियाँ उड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी.....आपातकाल के समय से ही राजनीती में गंदगी का दौर शुरू हुआ...खैर बात मुद्दे की...देश में चुनावों की बयार भी चल रही है...लेकिन इसका एहसास गर्म है.......उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव हो चुके है...तो बिहार में विधानसभा चुनाव अपने पूरे चरम पर है.....बात पंचायत चुनाव की....चुनाव हुए....इन चुनावों में कई रिश्ते टूटे..कई जातीय समीकरण बने...दबंगई देखने को मिली....तो कहीं से हत्या की खबरे भी आई.....और कहीं चुनाव की आचार संहिता के नाम पर पुलिस ने लोगों से अभद्रता की,और मां का अपमान किया....लोकतंत्र है...स्वतंत्रता है.....पंचायत चुनावों में कहीं भाई भाई ही एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लादे,तो कहीं बाप के खिलाफ बेटा....महिलाए भी पीछे नहीं थी...कूद पड़ी समर में और पति के खिलाफ ही ताल ठोंक दी.......लेकिन नतीजे भी सामने है.....जीत एक की ही होती है......पहले कहा जाता था कि जीत अर्जुन की ही होती है लेकिन अब जीत तिकड़मी,दबंगों और पहलवानों की होती है.....ऐसा नहीं है कि नतीजे आने के बाद चुनाव समाप्त हो गए....मेरे लिहाज से चुनाव जंग अब तो शुरू हुई है....जो पूरे पांच साल अगले पंचायत चुनाव तक चलेगी.....कहीं प्रधान अपने विरोधियों से बदला लेगा,तो कहीं प्रधान को ही मौत के घाट उतारा जाएगा.....आम जनता की भावनाओं की किसी को क़द्र नहीं...कि उसने किसे चुना,और क्यों....फिर होंगे उपचुनाव.....और जनता वोट देती रहेगी.....ठप्पा लगाती रहेगी.....जितना वर्णन गाँव के बारे में किया गया...शायद अब वो तस्वीर बदलने लगी है....या बदल चुकी है....गाँव के लोग सीधे नहीं रहे...खूनखराबा और सत्ता की मलाई चखने कई ललक उनमे भी आ गई है....और इस मलाई को चखने के लिए ओ किसी भी हद तक जाने को तैयार है.....खैर देखते है पांच साल का पंचायत चुनाव का अखाडा कितनो की बलि लेता है...कितने घर बर्बाद करता है.....आगे के पांच सालों में ही देखने को मिलेगा....तो देखिये गाँवों का महासंग्राम....
कृष्ण कुमार द्विवेदी
छात्र (मा.रा.प.विवि,भोपाल )

Monday, October 25, 2010

अब पत्रकार नहीं बनूगा...

एक वक़्त जब हम पर चढ़ा था बुखार,बनूगा पत्रकार
जन आशीष की चाह थी,चाह थी तो राह थी
एक दिन हश्र देखा,जब कलम की ताक़त का
हुआ अहसास वक़्त की नजाकत का
देश के बड़े पत्रकार और यूपी की माया
कलम को पुलिस के आगे लाचार पाया
पुलिस को शांति भंग की थी आशंका
डर था कहीं हनुमान जला न दे लंका
बस पत्रकार की मां को बिठा दिया थाने में
(करतूत उनकी थी)जो बिकते है रुपये आठ आने में
पत्रकार बेटे ने दिया घर की इज्ज़त का हवाल
पुलिस ने भी किये उससे सवाल दर सवाल
बेटे ने जब पुलिस को कानून का पाठ पढाया
लेकिन कानून भी सत्ता के आगे मजबूर नज़र आया
१८ घंटे बाद बमुश्किल,बेटा मां को आज़ाद करा पाया
धन्य है प्रशासन,धन्य है माया की माया
मां की आँखों का हर आंसू एक कहानी था
जेल में बीता हर पल एक लम्बी जिंदगानी था
देश की शसक्त महिलाए भी बेजुबान हो गई
या फिर माया बदगुमान हो गई
मै देखकर ये सब परेशां हो गया
बक बक करने वाला युवा बेजुबान हो गया
इस पूरी घटना में प्रशासन की तानाशाही थी
मां की आँखों में हर पल,बस सत्ता की तवाही थी
-कृष्ण कुमार द्विवेदी

Wednesday, September 29, 2010

विवादित भूमि



आखिर विबाद है क्या यह शायद आमजनता को पता नहीं विवाद असली मुद्दा है आस्था का जुड़ा होना। हिंदू अयोध्या को अपने आराध्य भगवान राम का जन्म स्थान मानते हैं और विवादित भूमि को रामजन्म भूमि कहते हैं, और मुस्लिम समुदाय का मानना है कि १५२७ में बाबर जब भारत आया और एक साल बाद यानि १५२८ मैं उसके सेनापति मीर बाकी ने उसके नाम से यहां मस्जिद बनाई। जबकि हिंदू कहते हैं कि यह मस्जिद मंदिर को तोड़ कर बनाई गई है। इसी विवाद के कारण पहली बार १८५९ सांप्रदायिक दंगे हुए थे। तब देश मैं अंग्रेजों का शासन था तो अंग्रेजी शासकों ने विवादित ज़मीन पर फैसला किया कि भीतर मुसलमानों को और हिंदुओं बाहर पूजा करने की इजाज़त है। साथ ही जाँच के आदेश कर दिए.विवादित ज़मीन पर जाँच के बाद १९४९ मैं मूर्तियाँ मिली। इस पर मुस्लिम समुदाय ने खुलकर विरोध प्रकट किया अतः मामला अदालत में चला गया और सरकार ने जगह को विवादित घोषित कर परिसर में ताला लगवा दिया। अभी इस मुकदमे में चार मुख्य दावेदार हैं। १. स्वर्गीय गोपाल सिंह विशारद,१९५०में अदालत में अर्जी दाखिल कर पूजा करने इजाज़त मांगी थी। १९५० में ही उत्तर प्रदेश सरकार ने भी अदालत में मूर्ति हटाने की याचिका डाली, लेकिन अदालत ने मूर्ति हटाने से इंकार करते हुए पूजा जारी रखने का आदेश दिया। २. निर्मोही अखाड़ा, जिसने १९५९ में विवादित जमीन पर मालिकाना हक़ को लेकर अर्ज़ी दी। ३. सुन्नी वक्फ़ बोर्ड, जिसने १९६१ में मस्जिद पर मालिकाना हक़ को लेकर एक अर्ज़ी दाख़िल की। ४. राम जन्मभूमि न्यास, जिसने १९८९ में विवादित ज़मीन पर क़ब्जे़ के लिए अर्ज़ी डाली।विवादित ज़मीन पर मालिकाना हक़ को लेकर चारों अर्ज़ियां फ़ैजाबाद अदालत में १९८९ तक लंबित रहीं, जिन्हें बाद में इलाहाबाद हाई कोर्ट के विशेष बेंच को भेज दिया गया।२००३ में अदालत के आदेश पर पुरातत्व विभाग ने विवादित ज़मीन की खुदाई की और मंदिर के अवशेष पाए जाने की रिपोर्ट दी।
इसी मामले में अदालत का फ़ैसला आने वाला है, लेकिन ६० साल से ज़्यादा पुराने इस विवाद का अंत यहां पर भी नहीं है। क्योंकि फ़ैसला चाहे जिसके भी पक्ष में आए, इतना तय है कि दूसरा पक्ष सुप्रीम कोर्ट ज़रूर जाएगा।देश के बेहद पुराने और सबसे मुश्किल मामलों में से एक अयोध्या विवाद में मालिकाना हक़ की जंग भले ही सिर्फ़ चार पक्षकारों के बीच हो, लेकिन अदालत के बाहर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े दूसरे संगठनों की भूमिका भी कम अहम नहीं है। आस्था का सवाल उठाकर संघ ने उन्नीस सौ वानवे में राम जन्मभूमि विवाद को आंदोलन की शक्ल दी। हालांकि इस बार वह ज़्यादा सजग है। इस बार संघ पहले की तरह आंदोलन करने के बजाए जनजागरण की रणनीति पर चल रहा है और इसकी कमान उसने बीजेपी के बजाए संतों और वीएचपी के हाथ में दे रखी है। जनजागरण का यह अभियान क़रीब डेढ़ साल पहले गोरक्षा आंदोलन से शुरू हुआ और इस वक़्त हनुमतशक्ति जागरण के रूप में जारी है। इसी रणनीति के तहत संघ ने जहां अपने अनुषांगिक संगठनों को क़ानून के दायरे में रहने की हिदायत दी है, वहीं राम मंदिर को संसद में क़ानून लाकर बनाने की मांग भी की है।

विवाद के दूसरे पक्ष यानी बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के तेवर भी पहले जैसे ही हैं। बातचीत के ज़रिए समाधान से अब तक इंकार करती आई बीएमएसी की निगाह अब फ़ैसले पर टिकी है। उसने साफ़ कर दिया है कि अगर फ़ैसला रास नहीं आया, तो वे सुप्रीम कोर्ट का रुख़ करेगी। हालांकि उसने भी अपने लोगों से शांति बनाए रखने की अपील की है। ज़ाहिर है दोनों पक्षों को पता है कि फ़ैसला चाहे जो भी आए, मामला सुप्रीम कोर्ट में ज़रूर जाएगा। लेकिन अच्छी बात ये है कि दोनों को मामले की संवेदनशीलता का अहसास है और दोनों ही अमन-चैन बनाए रखने की बात कर रहे हैं।

अदालत में २० मुद्दे शामिल है, जिन्हें इलाहबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने फ़्रेम किया है-
.क्या ढहा दिया गया ढांचा, मस्जिद था?
.ढांचे को कब और किसने बनवाया था?
३.क्या इसे एक हिन्दू मंदिर को ध्वस्त कर के बनवाया गया था?
४. क्या मुसलमान, बाबरी मस्जिद में अनंतकाल से इबादत करते आए थे?
५. क्या १५२८ से मुसलमानों ने इसे अपने क़ब्ज़े में रखा था?
६. क्या मुसलमानों ने १९४९ तक इसे अपने क़ब्ज़े में रखा था?
७.क्या इस पर केस बहुत देर से दायर हुआ?
८.क्या लगातार पूजा के ज़रिए हिन्दुओं ने अधिकार हासिल कर लिया?
९.क्या भूखंड राम का जन्मस्थान है?
१०.क्या हिन्दुओं ने अनंतकाल से वहां राम जन्मस्थान के रूप में पूजा की है?
११.क्या मूर्तियां ढांचे के अंदर २२/२३ दिसंबर, १९४९ की रात को रखी गईं, या पहले से थीं?
१२.क्या ढांचे से लगा चबूतरा, भंडार और सीता रसोई; ढांचे के साथ ढहा दिया गया?
१३.क्या ढांचे से लगे भूखंड पर एक पुरानी कब्रगाह और एक मस्जिद थी?
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क्या ढांचा पूजा स्थलों से घिरा हुआ है, जिसे पार किए बिना ढांचे तक नहीं पहुंचा जा सकता?
१५.क्या इस्लाम के मुताबिक उस भूखंड पर मस्जिद नहीं बनाई जा सकती, जहां मूर्तियां रख दी गई हों?
१६.क्या ढांचा क़ानूनी रूप से मस्जिद नहीं हो सकती, क्योंकि उसमें मीनारे नहीं थीं?
१७.क्या यह ढांचा एक मस्जिद नहीं हो सकती, क्योंकि यह तीन ओर से कब्रगाह से घिरा था?
१८.क्या ढांचे के विध्वंस के बाद इसे अभी भी मस्जिद कहा जा सकता है?
१९.क्या ढांचे को ढहा दिये जाने के बाद मुसलमान खुली जगह में नमाज़ पढ़ सकते हैं?
२०.क्या वादी मुस्लिम संगठन; राहत पाने का हकदार है और अगर हां तो क्यों?

फ़ैसले पर राजनीतिक समीकरणः केंद्र और राज्यों की सरकारें तो फ़ैसले को लेकर क़ानून-व्यवस्था के सवाल पर चौकस दिख रही हैं, लेकिन उन सरकारों में काबिज़ सियासी दलों का व्यवहार कितना ज़िम्मेदारी भरा होगा, यह कहना मुश्किल है। केंद्र में यूपीए के भीतर और बाहर फ़ैसले के बाद के असर की अगुआई करने की तगड़ी जंग छिड़ सकती है। वैसे यूपीए को बाहर से समर्थन देने वाले लालू-पासवान की जोड़ी ने बिहार चुनाव के पहले ही कांग्रेस से कन्नी काट ली है और उसकी आगे की रणनीति में अदालत के फैसले की अहम भूमिका होगी। दरअसल, आडवाणी की रथ यात्रा को बिहार में रोक एमवाई समीकरण को पुख़्ता करने वाले लालू ने पंद्रह साल तक बिहार पर राज किया। लेकिन अब वे सियासी वजूद की लड़ाई लड़ने पर मजबूर हैं। नीतीश कुमार ने लालू के जातीय समीरण पर आर्थिक छुरी चला दी है, ऐसे में अयोध्या पर फ़ैसले के बाद लालू अपने पुराने तेवर में लौट सकते हैं। दूसरी तरफ़ कांग्रेस को भी अल्पसंख्यक वोट वापस चाहिए, लेकिन गुड़ खाने और गुलगुले से परहेज करने की तर्ज़ पर उसकी दुविधा यह है कि वह बहुसंख्यकों को भी नाराज़ नहीं करना चाहती। लिहाज़ा हाईकोर्ट के फ़ैसले पर रज़ामंदी नहीं बनने की सूरत में वो दोनों ही पक्षों को सुप्रीम कोर्ट जाने के विकल्प के खुले होने की याद दिला रही है।
उधर वामपंथी खेमा टीएमसी की ममता बनर्जी से अपने ही गढ़ में मात खा रहा है। ऐसे में फ़ैसले के बाद यूपीए के दलों में मचने वाली खलबली से फ़ायदा उठाने का मौक़ा वह भी नहीं चूकना चाहेंगे। लब्बोलुआब यह है कि जल्द ही इन दलों के बीच सबसे बड़े सेक्युलर की रेस शुरू होने वाली है।

संतोष सिकरवार (ब्यूरो चीफ,भोपाल )

अयोध्या का मसला किसी के लिए आस्था का है, तो किसी के लिए सियासत का, तो किसी के लिए सम्मान का। संघ परिवार तो जैसे आस्था, सियासत और सम्मान के इसी त्रिशूल पर टंग गया है। अयोध्या का मुद्दा न उसे निगलते बन रहा है, न उगलते। संघ का सियासी संगठन बीजेपी इसे लेकर दुविधा में है तो धार्मिक संगठन वीएचपी के लिए यह जीवन-मरण का सवाल बन गया है। इस मुद्दे को राष्ट्रीय स्वाभिमान से जोड़ने वाला और ख़ुद को सामाजिक संगठन बताने वाला आरएसएस भी इसे लेकर सारे पत्ते खोलने से डर रहा है। हालांकि पक्ष और विपक्ष- दोनों ही तरह के फ़ैसलों की सूरत में जन आंदोलन खड़ा करने की उसकी पूरी तैयारी है। लेकिन यह तैयारी धरी की धरी रह जाएगी अगर जनता ने चुप्पी साध ली। ज़ाहिर है यह उसके विचार धारा के मूल को ख़ारिज़ करने जैसा होगा, फिर संघ क्या करेगा। इसीलिए संघ ने जम्मू कश्मीर के मसले पर आंदोलन करने की वैकल्पिक योजना भी बनाई है।
साफ़ है कि अयोध्या मुद्दे पर संघ अब खुलकर तभी आएगा, जब उसे लगेगा कि इस मामले में अब भी जनता की दिलचस्पी बची हुई है और राम मंदिर की ख्वाहिश लोगों के मन में आज भी उसी तरह ज़िंदा है, जैसे नब्बे के दशक में ज़िंदा थी। कमोबेश ऐसे ही मनःस्थिति उस दूसरे खेमे की भी है, जो अब तक मस्जिद की पैरोकारी करते रहे हैं। यानी अदालत का फ़ैसला चाहे जो भी हो, असली फ़ैसला देश की जनता को करना है कि वे अब भी मंदिर-मस्जिद में ही उलझे रहेंगे या फिर देश को सुपर पावर बनाने के सपने को पूरा करने के लिए क़दम से क़दम मिलाकर आगे बढ़ चलेंगे।

Thursday, August 19, 2010

बदल गए आजादी के मायने.....

बदल गए आजादी के मायने.....
आजादी के ६४ वां जश्न हमने जोर शोर से मनाया.....मगर १९४७ के बाद इन ६४ सालों में हम इतने स्वतंत्र हुए की कुछ भी करने लगे....यानी हमारे नसीब में स्वतानता तो आई मगर हमारे हाथों की लकीरों में स्वतंत्रता की रेखाए मिटना शुरू हो गई...हम सब अपने को स्वतंत्र भले ही बोले मगर सत्य यही है की हम मानसिक और वैचारिक रूप से अभी भी गुलामी की जंजीरों में जकड़े हुए है...हम जब इतिहास उठाकर देखते है या किसी विद्वान से पूछते है की हमारी गुलामी के लिए कौन जिम्मेदार था...तो जवाब मिलता है राजाओ की आपसी फूट......लेकिन मै मानता हू कि यहाँ कि जनता सबसे ज्यादा जिम्मेदार थी.....जो केवल मौन होकर सब देखती रही.....अगर १८५७ के बाद जैसी क्रांति और जनसैलाब उसी समय एकत्रित हो जाता...तो विश्व कि किसी भी शक्ति में इतनी कुव्वत नहीं थी कि हमें पराधीनता कि बेड़ियों में जकड लेता.....यदि हमारी जनता उसी समय जाग जाती तो शायद दुनिया के मानचित्र में भारत कि अलग ही तस्वीर होती....फिर शुरू हुआ संविधान में अपने मन मुताबिक परिवर्तन का खेल..कभी लिव इन रेलन्संशिप को मंजूरी दी गयी,तो कभी धरा ३७७ को...
स्वतंत्रता के इस जीवन में हम इतने स्वतंत्र हुए कि हम भूल गए कि जिस गरिमामयी पद पर किसी देश का राजा शासन करता है उस पर हमने निरक्षर,अनपढ़ ,भ्रष्ट को बैठा दिया.....राजधानी भोपाल में एक मामला भी ऐसा ही है...कल तक जिसके हाथ में पेंचकस और प्लस हुआ करता था...आज वे एक मीडिया संसथान में लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को शिक्षित कर रहे है....और वह भी हिंदी जैसी भाषा?हिंदी जिसे हम मातृभाषा का दर्जा देते है उस मातृभाषा को वह व्यक्ति कैसे पढ़ायेगा....बात लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के भविष्य कि है.....अगर उस कोलेज में माइक और स्पीकर जोड़ने वाला व्यक्ति हिंदी पढ़ायेगा तो उन पत्रकारिता के छात्रो की दशा और दिशा का निर्धारण कैसे होगा?वे कितनी लम्बी रेस का घोडा बन पायेगे?ये कोई नहीं जनता....शायद वे भी नहीं!
विडंबना है ये कि एक बड़े ग्रुप के प्रशासनिक अधिकारी का खास होना उसके लिए वरदान साबित हुआ...और उसे बैक अप ऑफिस ब्यॉय से एक प्रवक्ता के रूप में प्रोन्नत कर दिया गया....क्या इस ग्रुप में और जगह नहीं थी क्या?जो उसे कहीं और समायोजित किया जाता...लेकिन बात थूक में सत्तू घोलने वाली है...कम खर्च में ज्यादा मुनाफा कमाने कि चाहत में,कोलेज प्रशासन ने पत्रकारिता के छत्रो का भविष्य अंधकार माय करने से भी परहेज नहीं किया....स्वतंत्रता है कोलेज प्रशासन को किसी को भी कहीं भी बैठने कि....
ऐसी ही जगहों पर स्वतंत्रता का दुरूपयोग किया गया....हम भूल गए कि जितनी स्वतंत्रता हमें है उतनी ही दूसरो को भी.....क्यों कि हमारी स्वतंत्रता वहां तक ख़त्म हो जाती है जहाँ दुसरे कि नाक शुरू होती है....
चार पंक्तियाँ....
जिनको नहीं था नोलेज,बस खोल दिया कोलेज
उनमे एक भट्टे वाला था,एक कट्टे वाला था,और एक चट्टे वाला था......

Saturday, April 17, 2010

जज्बे को सलाम

जज्बे को सलाम


जिंदगी संघर्षो का नाम है। इसी जिंदगी में कई बार ऐसे पडाव आते है , जहां सबकुछ रुका रुका सा लगता है । लेकिन यदि खुद में कुछ कर गुजरने का जज्बा हो, कुछ कर दिखाने का जुनून हो तो सारी परेषानी अपने आप ही दूर हो जाती है । सारी परेषानी उस साहस के आगे बौनी नजर आती है । ऐसी ही षख्सियत है भोपाल की क्षमा कुलश्रेष्ठ । जिसने 18 वर्ष की उम्र में एक्सीडेंट की त्रासदी झेली। रीढ की हड्डी टूटी , पैरो में एहसास का भाव नही रहा। लेकिन लगन थी काम की , विष्वास था खुद पर , आस्था थी ईष्वर पर । इसी का नतीजा है कि आज क्षमा न केवल बैठ सकती है बल्की चल भी सकती है। पेटिंग में नेषनल अवार्ड से सम्मानित हो चुकी क्षमा दुर्घटना से ग्रसित और अपाहिज बच्चो के लिए एक प्रेरणा श्रोत है। भोपाल के गोविंदपुरा में रहने वाले के.के कुलश्रेष्ठ आज एक रिटायर टीचर है। उनके पांच बच्चो में सबसे छोटी बेटी क्षमा बचपन से ही होनहार थी । उसने बचपन में पेंटिंग की कई प्रतियोगिताये जीतलेेकिन 1998 क्षमा के लिए अभिषाप बन कर आया ,और अचानक एक दिन छत से गिरने के कारण उसकी रीड की हड्डी क्षतिग्रस्त हो गई। पैरो की सम्वेदना भी खत्म हो गयी और डॉक्टरो ने भी जवाब दे दिया। लेकिन ये क्षमा का साहस और जज्बा ही था कि 55 से भी ज्यादा ऑपरेषन होने के बाद उसने हिम्मत नही हारी । अब वह न केवल बैठ सकती है , बल्कि सहारे के बल पर चल भी सकती है। अपनी इच्छा षक्ति के बल पर उसने न केवल येे कारनामा कर दिखाया बल्कि सारे दर्द भुलाकर उसने बु्रष ,रंगो और कलम का दामन थामा । बेनूर हो चुकी उसकी जिंदगी में रंगो के कारण फिर से रंगत आ गई। अभी तक क्षमा चित्रकारी के लिए करीब 100 पुरुष्कार जीत चुकी है ।दिल्ली में भारत सरकार द्वारा आयोजित सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने उसे निषक्त जनसषक्तीकरण के लिए पुरुष्कृत भी किया। स्वामी विवेकानंद की एक किताब ‘‘लेक्चर फ्रोम कोलंबो टू अलमोडा ‘‘ ने उसको जीवन जीने का सम्बल प्रदान किया। और उसने अपनी काबिलियत के दम पर खुद को साबित करके दिखया। अपनी गणेष पेंटिंग के कारण क्षमा ने लिम्का बुक रिकार्ड में भी अपना नाम दर्ज कराया। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अबदुल कलाम को अपना रोल मोडल मानने वाली क्षमा ने डॉक्टर कलाम के लिए ‘‘एक इंसान अग्नि के समान ‘‘ कविता भी लिखी। दिन भर अपने रंगो में खोई रहने वाली क्षमा कविता और कहानी भी लिखती है। हमारी एक गुजारिष पर उसने अपनी एक कविता भी सुनाई ।रंगो को अपना जीवन समर्पित कर चुकी क्षमा उन निसक्त लोगो के लिए प्रेरणा श्रोत्र है जो दुर्घटना के बाद षांत बैठ जाते है। अदभुत प्रतीभा की धनी क्षमा के लिए एक पंक्ति बिलकुल सटीक बैठती है ।
‘‘ अभी न पूछो कि मंजिल कहां है

अभी तो सफर का ईरादा किया

हैं न हारुगी मै होसला जिंदगी भर

किसी से नही खुद से वादा किया है।"

‘‘क्षमा नित नई नई उचाईयो को छुये और अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में कामयाब हो । उसके इस जज्बे को हम सब सलाम करते हैं।

- कृष्ण कुमार द्विवेदी

Friday, March 5, 2010

लीक छोडती पत्रकारिता

चौथा स्तम्भ पत्रकारिता और इस पांचवे वेद का लेखक यानी वेद व्यास,एक पत्रकारलेकिन बड़े दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि वर्तमान कार्पोरेट जगत में पत्रकार एक बंधुआ मजदूर बन चुका है जो बड़े ओहदे पर बैठे लोग और मालिक कहेगा अब वही पांचवे वेद की ऋचाये होगी,श्लोक होंगे
अब पत्रकारिता,पत्रकारों से नहीं बड़े-बड़े उद्योगपतियों से है गाडी,चालक और मालिक का जो सम्बन्ध होता है,वही सम्बन्ध पत्रकारिता,पत्रकार और मालिक का होता हैवह जो कहेगा,पत्रकार वही लिखेगा और फिर गढ़ी जाती है पत्रकारिता की नई परिभाषा....
कभी मिशन के तहत शुरू हुआ ये शब्दजाल अब प्रोफेशन के रूप में पनपता जा रहा हैकभी लोकतंत्र के रक्षक के रूप में खड़ी नजर आने वाली पत्रकारिता अब लोकतंत्र को ही कमजोर करने का काम कर रही हैपिछले लोकसभा,विधानसभा,नगर निगम चुनावों में ये खूब देखा गया मतदाताओं का समर्थन हासिल ना कर पाने वाला एक धनाढ्य प्रत्याशी अपने पैसे की दम पर मीडिया का समर्थन ज़रूर हासिल कर लेता हैपैसे की दम पर कोई भी मुजरिम,बाहुबली अपने पक्ष में लिखवाता हैमीडिया भी विज्ञापन की लालच में उनका जोर-शोर से प्रचार प्रसार करता हैमीडिया द्वारा प्रचारित प्रोपेगंडा इस कदर फैलाया जाता है,कि मतदाता भी भ्रमित हो जाते हैं....
जिसके कारण एक स्वच्छ छवि का प्रत्याशी मुह की खाता है जबकि बाहुबली,अपराधी ,गुंडे सत्ता संभालते है बड़ी विडम्बना है कि जिस लोकतंत्र की स्थापना के लिए पत्रकारिता शुरू की गई थी उसी का दम घोंटने में ये अपना योगदान दे रही हैजिन प्रत्याशियों को दस या सौ वोट भी नहीं मिलते उनको भी हमारे समाचार पत्र,लोकप्रिय प्रत्याशी के नाम से संबोधित करते हैहालांकि मुंबई विधानसभा चुनावों में 'पैड न्यूज़' के मामले में अभी जांच चल रही हैहालिया मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में एक बड़े समाचार पत्र ने कांग्रेस प्रत्याशी का ऐसा विज्ञापन मुख्या पृष्ठ पर दिया लगा जैसे खबर लगी होइससे ज्यादा दूषित पत्रकारिता का नहीं हो सकता
कभी तो शर्मा आने लगती है,इसके वर्तमान पर तो इसके अतीत में झांकता हूँ तो सुखद अहसास का अनुभव होता है आज भी भारत की सवा सौ करोड़ जनता मीडिया के सामने प्यासे पपीहे की तरह ओस की बूंदों के लिए आशा भरी निगाहों से देख रही है की काश पत्रकारिता का चरित्र सुधर जाए और हमें सही खबर मिले
पत्रकारों के लिए
कलम के पहरुओं सजग पत्रकारों
स्याही से कागज़ पर जो कुछ उतारो
हो उसमें समय के विवादों की बातें
विवादों में उद्धृत हो गुमनाम रातें
अगर जागते हो कलम के सिपाही
तो संभव है रुक जाये थोड़ी तबाही
- कृष्ण कुमार द्विवेदी

Tuesday, February 23, 2010

२४ घंटे न्यूज़ चैनल के उद्भव के समय समाचार पत्र के बारे में तरह तरह के कयास लगाये गए कि समाचार पत्र अब जल्द ही पुराने ज़माने की पुरानी चीजे हो जायेगें,लेकिन इस बदलते परिवेश में भी समाचार पत्रों ने अपने अस्तित्व को बनाये रखा,नए नए आयामों को तय किया .......लेकिन शायद अब ये समाचार पत्र राजधानी के एक पत्रकारिता के शिक्षण संसथान में गुजरे ज़माने की पुरानी चीजे होने वाले है....विद्ध्यालय प्रबंधन के लिए ये अब पुराने सिक्कों से ज्यादा कुछ नहीं है.......पंजाब केसरी की सम्पादकीय जहाँ युवाओं में अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की अलख जगाया करता है......तो जनसता के व्यंगात्मक लेख अपने आप में विशिष्ट है.....
सीधे तौर पर कहा जाये तो पत्रकारिता का ककहरा सीखने वाले छात्रो के लिए तो ये संजीवनी से कम नहीं....लेकिन पीपुल्स पत्रकारिता शिक्षण संसथान के छात्रों को अब ये समाचार पत्र पढने को नहीं मिलेगे......
विद्यालय प्रबंधन के एक निर्णय के अनुसार और मिली सुचना के अनुसार कॉलेज के लायब्रेरी में सारी मेग्जींस और राष्ट्रिय समाचार पत्र अब उपलब्ध नहीं हो पायेगे.....
लायब्रेरी में अब केवल दैनिक भास्कर,राज एक्सप्रेस,पत्रिका,और ग्रुप का पीपुल्स समाचार ही उपलब्ध रहेगा|
पता नहीं पत्रकारिता के इस संसथान में पत्रकारों के लिए इतनी मुट्ठी तंग क्यों की जा रही है......बदलते परिवेश और पत्रकारिता में हो रहे बदलावों से भावी पत्रकार कैसे रु ब रु हो पायेगे...
कॉलेज में न्यूज़ चैनल देखने के लिए और उसकी बारीकियों को सीखने के लिए कोमन रूम की व्यवस्था पहले से ही नहीं है...और अब समाचार पत्रों के बंद होने से पत्रकारिता के छात्र अपनी जिज्ञासा की प्यास कैसे बुझा पायेगे....
पत्रकारिता के छात्रों के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लग जायेगा....कैसी होगी इस कॉलेज की नई पौध ....ये तो कुछ कहा नहीं जा सकता...लेकिन ये बात बिलकुल तय है..कि मानव मूल्यों के सरोकार की पत्रकारिता को कर पायेगे ये छात्र.....इस संस्थान का तो भगवान ही मालिक है......
सभी छात्रों को उज्जवल भविष्य की शुभकामनाये.....

Monday, January 11, 2010

मेरा नज़रिया: नया साल,बढ़ते कदम

मेरा नज़रिया: नया साल,बढ़ते कदम

नया साल,बढ़ते कदम


नया साल,नई सौगातें,नया जोश और जज़्बा हर भारतीय की एक ख्वाहिश कि हमारा देश दिन दुगुनी रात चौगुनी तरक्की करे॥ भारतीय बाजार पटरी पर लौट रहा है मंडियां फिर से अपनी मुस्कान बिखेरने को तैयार और सेंसेक्स उचाइयों कि नई बुलंदियों को छूने की कोशिश कर रहा है....मतलब बड़ा साफ़ है नया साल नई खुशियाँ लेकर आया...लेकिन नहीं बदले तो नेताओं के चरित्र,साल की शुरुआत के साथ ही संवेदनहीनता की कई घटनाये..तमिलनाडु की एक घटना एक पुलिसकर्मी को हमला कर घायल कर दिया गया वह बेचारा लोगों से मदद की गुहार लगता रहा...मंत्री जी का काफिला वहीँ से गुजरा लेकिन किसी ने उसकी मदद नहीं की....
एक दूसरी घटना...सतना में एक जिन्दा बच्चे को डॉक्टर ने मृत घोषित कर दिया..क्यों की डॉक्टर को जाने की जल्दी थी.....और किसी ने इस मामले को कवरेज नहीं दिया समय बदला,विकास हुआ...साथ में मर गई संवेदनशीलता.....
इसी तरह की जिन घटनाओं को तबज्जो नहीं दी जाती...हमारा प्रयास कि ऐसी घटनायों को उजागर करे....और इसी की एक कोशिश....हम सब मित्रों के सहयोग से जल्द ही भोपाल से एक मैगजीन का प्रकाशन...जो राजनैतिक मुद्दों पर आधारित होगी.....नाम होगा खबरमाला.....खबरों को एक माला में पिरोने का प्रयत्न..हमारा ध्येय खबर बनाना नहीं...ख़बरों को उजागर करना है....कोशिश पत्रकारिता के माप दंडों पर चलते हुए मानव मूल्यों की रक्षा की जा सके...
इस मैगजीन के सभी कार्यकर्ता नए हैं,नया जोश है......इसलिए कुछ नया करने की चाहत थी....सो बिना किसी दवाव के मानवीय पक्षों और उनकी आवाज को उठाया जा सके......
श्री प्रदीप तिवारी जी प्रधान सम्पादक का दायित्व निभा रहे है.......मेरे मित्र श्री राजा नगायच प्रबंध संपादक ही भूमिका में....और अजय चौहान मुख्या कार्य पालक संपादक की जिम्मेदारी निभा रहे है....
जल्द ही ये पत्रिका आप लोगो के हाथ में होगी...नए साल में हम लोगों के बढ़ते कदम ....बिना किसी दवाब के मानव मूल्यों की पत्रकारिता की कोशिश.....कैसा है हम लोगों का प्रयास ....क्या कमी रही पत्रिका में.......क्या हम अपनी पत्रिका में नया कर सकते है.....बस आपका प्यार और स्नेह चाहिए........
आपके प्यार के लिए अपेक्षित
कृष्ण कुमार द्विवेदी