बहुत खुबसुरत मगर सांवली सी
मुझे अपने ख्वाबों की बाहों में पाकर
कभी नींद में मुस्कुराती तो होगी
उसी नींद में कसमसा-कसमसा कर
सिरहाने से तकिये गिराती तो होगी
वही ख्वाब दिन के मुंडेरों पे आके
उसे मन ही मन में लुभाते तो होंगे
कई साझ सीने की खामोशियों में
मेरी याद से झनझनाते तो होंगे
वो बेशाख्ता धीमें धीमें सुरों में
मेरी धुन में कुछ गुनगुनाती तो होगी
चलो खत लिखें जी में आता तो होगा
मगर उंगलियाँ कंपकपाती तो होगी
कलम हाथ से छुट जाता तो होगा
उमंगे कलम फिर उठाती तो होंगी
मेरा नाम अपनी किताबों पे लिखकर
वो दातों में उंगली दबाती तो होगी
जुबाँ से कभी अगर उफ् निकलती तो होगी
बदन धीमे धीमे सुलगता तो होगा
कहीं के कहीं पाँव पडते तो होंगे
जमीं पर दुपट्टा लटकता तो होगा
कभी सुबह को शाम कहती तो होगी
कभी रात को दिन बताती तो होगी
-अनाम
मै बचपन से ही विचारक प्रवृत्ति का रहा हूँ...लेकिन अभी तक कोई माध्यम नही मिला जिससे कि दिल कि आवाज़ को लोगों तक पंहुचा सकूँ !लेकिन पत्रकारिता के क्षेत्र में आने के बाद विचारो को अभिव्यक्त करने का जज्बा भड़क उठा और लोगों से जुड़ने का अच्छा माध्यम लगा ब्लॉग और बना लिया विचारो को लिखने का आशियाना...
Tuesday, October 21, 2008
Monday, October 20, 2008
मनुष्य और कौवा
सैर करने गया मै
देखते ही देखते
चौराहे पर मर गया कौवा
कुचलकर किसी वाहन से
भीड़ इकट्ठी हो गई
हजारों कौवों की
कोलाहल हो गया
सारी सड़क पर
आगे कत्ल हो गया गली में
किसी इंसान का
देखते ही देखते
बंद हो गई सभी दुकानें
पता न लगा एक भी इन्सान का
सोचने लगा में भी,
क्या कीमत है इन्सान की
गायब हो जाते है
सभी मौत पर इन्सान की
गए सैर करने हम
राह नापते रहे
घर हमारा जल गया
लोग थे की दूर से तापते ही रहे !
-कृष्ण कुमार द्विवेदी
देखते ही देखते
चौराहे पर मर गया कौवा
कुचलकर किसी वाहन से
भीड़ इकट्ठी हो गई
हजारों कौवों की
कोलाहल हो गया
सारी सड़क पर
आगे कत्ल हो गया गली में
किसी इंसान का
देखते ही देखते
बंद हो गई सभी दुकानें
पता न लगा एक भी इन्सान का
सोचने लगा में भी,
क्या कीमत है इन्सान की
गायब हो जाते है
सभी मौत पर इन्सान की
गए सैर करने हम
राह नापते रहे
घर हमारा जल गया
लोग थे की दूर से तापते ही रहे !
-कृष्ण कुमार द्विवेदी
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