
ऊपर वाले के खेल भी अजब निराले हैं!उसने जब कायनात बनाई होगी,तब एक एक मानव की जरूरत की चीजों पर गौर किया होगा जिससे वह इस मृत्युलोक में भी अपना जीवन आराम से व्यतीत कर सके!जब उसक लगा कि मनुष्य अपने आपको अकेला महसूस कर रहा है,तब उसने बेटी नाम की संरचना को गढ़ा होगा!खैर गढ़ने की जरूरत ही नहीं थी,मानव जैसे ही एक और अनमोल रचना,जिसमे भावनाए,ममता,प्यार को कूट कूट कर भर दिया!इस विनाशी संसार को आगे बढ़ाने के लिए आँचल दिया,जिसकी छाँव में पलकर और दूध पीकर चलना सीखा,और अपना विकास किया!
लेकिन हमने बेटी और बेटे में अंतर पैदा किया,क्यों?त्रेतायुग में सीता,गार्गी,सुलोचना जैसी बेटियाँ पैदा हुई,ये जब तक अपने पिता के पास रहीं एक बेटी का कर्त्तव्य निभाया,जब विवाह के बाद अपने पति के घर गईं तो पत्नीव्रत धर्मं भी निभाया!लेकिन बेटी को गैर समझा जाने लगा,क्यों?कहीं न कहीं इसके पीछे मानसिकता जरूर है कि बेटी को जन्म से ही पराया धन माना जाता है,और हम लोग पराये धन पर दांव नहीं लगाते!बेटी सबसे ज्यादा अपने पिता की लाडली होती है,और माँ उसकी सबसे अच्छी दोस्त!एक पिता अपने बेटों से ज्यादा बेटी को प्यार करता है!क्यों कि एक वैज्ञानिक सत्य है कि विपरीत लिंगों के मन में एक दुसरे के प्रति आकर्षण होता है,और निश्चित रूप से बाप-बेटी का रिश्ता उससे अछूता नहीं है!बेटी के बारे में कहा जाता है कि वह अपने ससुराल पक्ष की अपेक्षा मायके पक्ष के प्रति ज्यादा संवेदनशील होती है,इससे सिद्ध होता है कि बेटों की अपेक्षा माँ-बाप की सेवा बड़ी ही तन्मयता के साथ करती है!पुरुष को भावनात्मक रूप से सबसे ज्यादा मजबूत माना जाता है,लेकिन बेटी की विदाई के समय उसकी यह मजबूती पता नहीं क्यों नहीं आ पाती,और फफक कर रो पड़ता है!दुनिया के दस्तूरों में बंधकर उसे अपनी २० सालों की अमूल्य निधि पराये हाथों में सौपना पड़ती है!
लेकिन वर्तमान परिदृश्य में बेटियों की संख्या में कमी आती जा रही है!बेटियों को पैदा होते ही मार दिया जाता है,या कोख में ही उनका दम घोंट दिया जाता है!ऐसा नहीं है कि इनका कत्ल होना कुछ नई बात हो!राजाओं-महाराजाओं के समय राजस्थान के राजा जन्म के समय ही बेटियों को मार डालते थे,क्यों कि उन्हें मुस्लिम शासकों के आक्रमण का डर लगा रहता था,जो उनकी बहू,बेटियों के साथ बड़ी ही पिशाचता के साथ पेश आते थे!वर्तमान दौर भी कुछ कम नहीं है,अब मुस्लिम शासकों के आक्रमण की जगह दहेज़ ने ले ली है!बेटियों की शादी के समय इतनी बड़ी रकम वरपक्ष को देनी पड़ती है,जितनी एक मजदूर वर्ग अपनी पूरी जिन्दगी में नहीं कमा पाता!और परिणाम, बेटियों की हत्या.....चाहे ससुराल पक्ष के द्वारा हो या फिर अपने पिता के हाथों,दोनों ही दशा में बेटी कि बलि ही चदायी जाती है!बुंदेलखंड में बेटियों को देवी के सदृश पूजा जाता है,यहाँ पर बेटियों के पैर छूने की प्रथा है,ऐसा शायद ही भारत के किसी हिस्से में होता हो,लेकिन भ्रूण हत्या के मामले में ये क्षेत्र भी पीछे नहीं है! कन्या भ्रूण हत्या के मामले इस कदर बढे है कि प्रति हजार पुरुषों पर केवल ९२७ महिलाये ही है! लेकिन बाप-बेटी के रिश्तों में भी दरार पड़ती नजर आ रही है,कभी बाप बेटी को अपनी हवस का शिकार बनाता है,तो कभी बेटी संपत्ति और कामुक्त प्रेम में अंधे होकर अपने बाप का कत्ल कर देती है!कुछ बाप बेटी के नाम जिन्होंने एक मिशल कायम की है....
जनक-सीता
जवाहर लाल नेहरू-इंदिरा गाँधी
जगजीवनराम-मीरा कुमार
रीता बहुगुणा जोशी-हेमवतीनंदन बहुगुणा
अम्बिका मिश्रा-सुनील मिश्रा(मेरी मित्र)
सवाल ये है-
१-कब तक बेटी पराया धन समझी जाती रहेगी?
२-कब तक बेटियों की यूँ ही हत्या की जाती रहेगी?
३-हवस के पुजारियों के चंगुल से कब आजाद होगी?
४-कब बेटी ब्याहकर ससुराल नहीं जायेगी बल्कि दूल्हा को ब्याहकर लाएगी?
अंत में कुछ पंक्तियाँ जो मेरे पिता जी अक्सर गुनगुनाया करते हैं-"ई संसारी में विधना ने,कैसी रीति बनाई
पाल-पोश के करो बडो सो,बिटिया भाई परायी
सुघरी स्यात भाई ती पैदा,बिटिया प्यारी-प्यारी
बारी उम्र अबै लाराकैयाँ,सुदी बहुत बिचारी
रही लाडली प्रानन प्यारी,नैन पुतरिया मोई
छाती से चिपका महतारी लओ,जबन्ही जा रोई
साजन साज बाराती आ गए द्वार बजी शहनाई
पाल-पोश के.........