Monday, July 30, 2012

जौहर प्रथा का साक्षी महोबा का कजली मेला

कीरत सागर पर लोगों का हुजूम...और लोक गीतों में आल्हा ऊदल का यशोगान...हर बुंदेली के रग रग में जोश और जुनून भर देता है...राखी के पर्व हर बहन अपने भाई को राखी बांधकर उसे दुआएं देती है...तो भाई भी उससे ताउम्र रक्षा का वादा करता है...मगर ऐतिहासिक कजली महोत्सव और रक्षाबंधन बुंदेलों के लिये केवल त्यौहार नहीं है,ये एक कहानी है जौहर प्रथा की...ये त्यौहार एक निशानी है वीरता की गाथा की...ये साक्षी है उस युद्ध का...जिससे कीरत सागर का पानी लहू में तब्दील हो गया... चंदेल और चौहान सेनाओं के खून से लाल कीरत सागर की धरती आज भी बुंदेलों में जोश व जज्बे का संचार करती है... कजली महोत्सव हजार साल पहले लड़ी गई अस्तित्व व अस्मिता की लड़ाई की याद ताजा कराता है...
1100 साल पहले चंदेल शासक परमालिदेव के शासन काल में दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान ने आल्हा ऊदल की मौजूदगी में यहां आक्रमण कर महोबा को चारों ओर से घेर लिया था। चौहान सेना ने शहर के पचपहरा, करहरा व सूपा गांव में डेरा डाल राजा परमालिदेव से उनकी बेटी चंद्रावल का डोला व पारस पथरी नजराने की रूप में मांगी थी। यह वह दौर था जब आल्हा ऊदल को राज्य से निष्कासित कर दिया गया था और वह अपने मित्र मलखान के पास कन्नौज में रह रहे थे। रक्षाबंधन के दिन जब राजकुमारी चंद्रावल अपनी सहेलियों के साथ भुजरियां विसर्जित करने जा रही थी तभी पृथ्वीराज की सेना ने उन्हें घेर लिया। आल्हा ऊदल के न रहने से महारानी मल्हना तलवार ले स्वयं युद्ध में कूद पड़ी थी। दोनों सेनाओं के बीच हुए भीषण युद्ध में राजकुमार अभई मारा गया और पृथ्वीराज सेना राजकुमारी चंद्रावल को अपने साथ ले जाने लगी। अपने राज्य के अस्तित्व व अस्मिता के संकट की खबर सुन साधु वेश में आये वीर आल्हा ऊदल ने अपने मित्र मलखान के साथ उनका डटकर मुकाबला किया। चंदेल और चौहान सेनाओं की बीच हुये युद्ध में कीरतसागर की धरती खून से लाल हो गई। युद्ध में दोनों सेनाओं के हजारों योद्धा मारे गये। राजकुमारी चंद्रावल व उनकी सहेलियां अपने भाईयों को राखी बांधने की जगह राज्य की सुरक्षा के लिये युद्ध भूमि में अपना जौहर दिखा रही थी। इसी वजह से भुजरिया विसर्जन भी नहीं हो सका। तभी से यहां एक दिन बाद भुजरिया विसर्जित करने व रक्षाबंधन मनाने की परंपरा है। महोबा की अस्मिता से जुड़े इस युद्ध में विजय पाने के कारण ही कजली महोत्सव विजयोत्सव के रूप में मनाया जाता है। सावन माह में कजली मेला के समय गांव देहातों में लगने वाली चौपालों में आल्हा गायन सुन यहां के वीर बुंदेलों में आज भी 1100 साल पहले हुई लड़ाई का जोश व जुनून ताजा हो जाता है।

Tuesday, May 8, 2012

कब आओगे कृष्णा?


रात को जब सोने की तैयारी करता हूं...तो कुछ बातें दिल को इतनी कचोटती हैं...कि रात भर सो नहीं पाता...लगता है कि अभी बस चले...तो परिवर्तन की बयार अभी से ही शुरु कर दूं...मगर दिल को शांत कर देता हूं...सोचता हूं...इस आग को अंदर ही अंदर और धधकने दूं...अभी और भड़कने दूं...जिस दिन ज्वाला बनकर निकलेगी...बुरे लोग,बुरी बातें सब जलकर खाक हो जाएंगी...
 भारत देश की वर्तमान परिस्थितियों को देखकर दिल में एक टीस उठी,जाग उठी
एक कसक और उसी कसक को कलम से कागज़ पर उतार दिया .आशा है जरूर पसंद आएगी!
एक रात को माँ का फोन आया कि बेटा में तुझसे मिलने कल आ रही हु !माँ को
लेने स्टेशन सुबह तडके ही पहुच गया,गाड़ी लेट थी सो गाड़ी के इंतजार में
चाय पिने लगा !तभी भयावह सूरत,डरावनी शक्ल वाली एक औरत दिखाई दी,जिसके
बाल बिखरे हुए थे,  माथे से लेकर पैर तक खून से सनी हुई थी, बदहवास सी वह
औरत छट पटा रही थी!उसके पैरों में पायलों कि जगह मोटी-२ बेडियाँ थी, हाथ
जल रहे थे, कपडे ऐसे कि शर्म भी शर्मा जाये,लेकिन चेहरे पर अलौकिक तेज
था,माथे की बिंदी उसके गाल पर चिपक गयी थी,वह रोना चाहती थी लेकिन आँखों
से आंसू नहीं निकल रहे थे!वह अपने प्राण बचाने को चिल्ला रही थी, विलख
रही थी,अपनी लाज बचाने को वह दौड़ती हुई चली आ रही थी!
पत्रकार होने के नाते मैंने पूछ लिया आपकी दशा किसने की? मैंने भी बड़ा
बेकार प्रश्न पूछा था जिसको अपनी जान के लाले पड़े हो और उससे उसकी कहानी
पूछो, उसको सांत्वना देना और रक्षा करना तो दूर,उससे सवालो की झडी लगा
दी!इसमें मेरा कसूर नहीं था ,यह कसूर था नयी पत्रकारिता का जिसने TRP के
फेर में उसकी पीडा, दर्द को भुला दिया जाता है और प्रश्नों की क़तर लगा
दी जाती है!
उसने बताया कि जमीन के विवाद में पड़ोसियों से झगडा हो गया है,रिश्ते
नातेदार तो दूर मेरे बेटों ने भी मेरा साथ छोड़ दिया है,बड़ा बेटा तो
पड़ोसियों से मिल गया है और उसीने मेरी ऐसी हालत कराई हहै! दो छोटे बेटे
बैठकर मजा ले रहे है,गाड़ियों से घूम रहे है,और अपनी शान-ओ शौकत में जी
रहे है! मै भी नयी पीढी का पत्रकार था इसलिए पूछ बैठा कि आप कैसा महसूस
कर रहीं हैं? उसने कहा कि जिसके बेटों ने उसके हाँथ  जलाये हो,वह माँ
कैसा महसूस कर सकती है? जिन बेटों को नौ माह गर्भ में रखा, कष्ट झेला,
गोदी में खिलाया, अंगुली पकड़ कर चलना सिखाया, पढाया लिखाया और उसी ने
मेरे हाथ जला दिये अब मै कैसा महसूस कर सकती हूँ! मैंने उससे फिर सवाल
दगा आप अपने बेटों के लिए क्या कहना चाहती है?माँ का दिल तो विशाल होता
है!बेटा कैसा भी  हो, माँ-माँ ही होती है,कहा मेरे बेटे हमेशा खुश रहे और
में अपने बेटों को कामयाबी कि बुलंदियां छूटे देखना चाहती हूँ!मै चाहती
हूँ कि मेरी जमीन में हरी भरी फसल लहलहाए,चिडियां चाह्चाये, कोयल गीत गए
और लोग ऐसा नजारा देखकर झूम उठे और खुश  रहे!
उसकी बात ख़त्म ही हुयी थी,मै फिर पूछना चाहता था कि आपके छोटे कपडे जो
तन को नहीं ढक पा रहे है फैशन है या मज़बूरी!उतने में ही पीछे से
हमलावरों का जत्था आता दिखाई दिया,और वह औरत बचाओ-२ चिल्लाती हुई ,आगे
चली गयी,शायद इस आस में कि कोई देवदूत आ जाये और इन कातिलों से उसकी
रक्षा करे !मै दुखी मन से देखता रहा उस औरत की ओर,जब तक वह नजर  से ओझिल
नहीं हो गयी!
तभी आवाज आई किशन-किशन,मेरी माँ आ चुकी थी! मैंने उनको प्रणाम किया और
उनका बैग हाथ में लेकर घर वापिस चला आया ! उस आवाज में इतना दर्द,करुना
थी कि पत्थर भी पिघल जाये,लेकिन नहीं पिघले तो वो थे उन दरिंदों के
दिल,जो महज कुछ जमीन और अपने अस्तित्व के लिए माँ पर हमला करते रहे! वो
माँ "कृष्णा कब आओगे" कि गुहार लगाती रही लेकिन कृष्णा उसकी कुछ मदद ना
कर सका! क्यों कि कृष्णा को मिल गयी थी एक मसालेदार कहानी कल के लिए,जो
करा सकती थी उसका प्रमोशन,उसकी पदोन्नति!
आखिर कब तक माँ की अस्मिता को गिरवी रख कर चलता रहेगा पदोन्नति का खेल?कब तक...?