Monday, July 30, 2012

जौहर प्रथा का साक्षी महोबा का कजली मेला

कीरत सागर पर लोगों का हुजूम...और लोक गीतों में आल्हा ऊदल का यशोगान...हर बुंदेली के रग रग में जोश और जुनून भर देता है...राखी के पर्व हर बहन अपने भाई को राखी बांधकर उसे दुआएं देती है...तो भाई भी उससे ताउम्र रक्षा का वादा करता है...मगर ऐतिहासिक कजली महोत्सव और रक्षाबंधन बुंदेलों के लिये केवल त्यौहार नहीं है,ये एक कहानी है जौहर प्रथा की...ये त्यौहार एक निशानी है वीरता की गाथा की...ये साक्षी है उस युद्ध का...जिससे कीरत सागर का पानी लहू में तब्दील हो गया... चंदेल और चौहान सेनाओं के खून से लाल कीरत सागर की धरती आज भी बुंदेलों में जोश व जज्बे का संचार करती है... कजली महोत्सव हजार साल पहले लड़ी गई अस्तित्व व अस्मिता की लड़ाई की याद ताजा कराता है...
1100 साल पहले चंदेल शासक परमालिदेव के शासन काल में दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान ने आल्हा ऊदल की मौजूदगी में यहां आक्रमण कर महोबा को चारों ओर से घेर लिया था। चौहान सेना ने शहर के पचपहरा, करहरा व सूपा गांव में डेरा डाल राजा परमालिदेव से उनकी बेटी चंद्रावल का डोला व पारस पथरी नजराने की रूप में मांगी थी। यह वह दौर था जब आल्हा ऊदल को राज्य से निष्कासित कर दिया गया था और वह अपने मित्र मलखान के पास कन्नौज में रह रहे थे। रक्षाबंधन के दिन जब राजकुमारी चंद्रावल अपनी सहेलियों के साथ भुजरियां विसर्जित करने जा रही थी तभी पृथ्वीराज की सेना ने उन्हें घेर लिया। आल्हा ऊदल के न रहने से महारानी मल्हना तलवार ले स्वयं युद्ध में कूद पड़ी थी। दोनों सेनाओं के बीच हुए भीषण युद्ध में राजकुमार अभई मारा गया और पृथ्वीराज सेना राजकुमारी चंद्रावल को अपने साथ ले जाने लगी। अपने राज्य के अस्तित्व व अस्मिता के संकट की खबर सुन साधु वेश में आये वीर आल्हा ऊदल ने अपने मित्र मलखान के साथ उनका डटकर मुकाबला किया। चंदेल और चौहान सेनाओं की बीच हुये युद्ध में कीरतसागर की धरती खून से लाल हो गई। युद्ध में दोनों सेनाओं के हजारों योद्धा मारे गये। राजकुमारी चंद्रावल व उनकी सहेलियां अपने भाईयों को राखी बांधने की जगह राज्य की सुरक्षा के लिये युद्ध भूमि में अपना जौहर दिखा रही थी। इसी वजह से भुजरिया विसर्जन भी नहीं हो सका। तभी से यहां एक दिन बाद भुजरिया विसर्जित करने व रक्षाबंधन मनाने की परंपरा है। महोबा की अस्मिता से जुड़े इस युद्ध में विजय पाने के कारण ही कजली महोत्सव विजयोत्सव के रूप में मनाया जाता है। सावन माह में कजली मेला के समय गांव देहातों में लगने वाली चौपालों में आल्हा गायन सुन यहां के वीर बुंदेलों में आज भी 1100 साल पहले हुई लड़ाई का जोश व जुनून ताजा हो जाता है।

Tuesday, May 8, 2012

कब आओगे कृष्णा?


रात को जब सोने की तैयारी करता हूं...तो कुछ बातें दिल को इतनी कचोटती हैं...कि रात भर सो नहीं पाता...लगता है कि अभी बस चले...तो परिवर्तन की बयार अभी से ही शुरु कर दूं...मगर दिल को शांत कर देता हूं...सोचता हूं...इस आग को अंदर ही अंदर और धधकने दूं...अभी और भड़कने दूं...जिस दिन ज्वाला बनकर निकलेगी...बुरे लोग,बुरी बातें सब जलकर खाक हो जाएंगी...
 भारत देश की वर्तमान परिस्थितियों को देखकर दिल में एक टीस उठी,जाग उठी
एक कसक और उसी कसक को कलम से कागज़ पर उतार दिया .आशा है जरूर पसंद आएगी!
एक रात को माँ का फोन आया कि बेटा में तुझसे मिलने कल आ रही हु !माँ को
लेने स्टेशन सुबह तडके ही पहुच गया,गाड़ी लेट थी सो गाड़ी के इंतजार में
चाय पिने लगा !तभी भयावह सूरत,डरावनी शक्ल वाली एक औरत दिखाई दी,जिसके
बाल बिखरे हुए थे,  माथे से लेकर पैर तक खून से सनी हुई थी, बदहवास सी वह
औरत छट पटा रही थी!उसके पैरों में पायलों कि जगह मोटी-२ बेडियाँ थी, हाथ
जल रहे थे, कपडे ऐसे कि शर्म भी शर्मा जाये,लेकिन चेहरे पर अलौकिक तेज
था,माथे की बिंदी उसके गाल पर चिपक गयी थी,वह रोना चाहती थी लेकिन आँखों
से आंसू नहीं निकल रहे थे!वह अपने प्राण बचाने को चिल्ला रही थी, विलख
रही थी,अपनी लाज बचाने को वह दौड़ती हुई चली आ रही थी!
पत्रकार होने के नाते मैंने पूछ लिया आपकी दशा किसने की? मैंने भी बड़ा
बेकार प्रश्न पूछा था जिसको अपनी जान के लाले पड़े हो और उससे उसकी कहानी
पूछो, उसको सांत्वना देना और रक्षा करना तो दूर,उससे सवालो की झडी लगा
दी!इसमें मेरा कसूर नहीं था ,यह कसूर था नयी पत्रकारिता का जिसने TRP के
फेर में उसकी पीडा, दर्द को भुला दिया जाता है और प्रश्नों की क़तर लगा
दी जाती है!
उसने बताया कि जमीन के विवाद में पड़ोसियों से झगडा हो गया है,रिश्ते
नातेदार तो दूर मेरे बेटों ने भी मेरा साथ छोड़ दिया है,बड़ा बेटा तो
पड़ोसियों से मिल गया है और उसीने मेरी ऐसी हालत कराई हहै! दो छोटे बेटे
बैठकर मजा ले रहे है,गाड़ियों से घूम रहे है,और अपनी शान-ओ शौकत में जी
रहे है! मै भी नयी पीढी का पत्रकार था इसलिए पूछ बैठा कि आप कैसा महसूस
कर रहीं हैं? उसने कहा कि जिसके बेटों ने उसके हाँथ  जलाये हो,वह माँ
कैसा महसूस कर सकती है? जिन बेटों को नौ माह गर्भ में रखा, कष्ट झेला,
गोदी में खिलाया, अंगुली पकड़ कर चलना सिखाया, पढाया लिखाया और उसी ने
मेरे हाथ जला दिये अब मै कैसा महसूस कर सकती हूँ! मैंने उससे फिर सवाल
दगा आप अपने बेटों के लिए क्या कहना चाहती है?माँ का दिल तो विशाल होता
है!बेटा कैसा भी  हो, माँ-माँ ही होती है,कहा मेरे बेटे हमेशा खुश रहे और
में अपने बेटों को कामयाबी कि बुलंदियां छूटे देखना चाहती हूँ!मै चाहती
हूँ कि मेरी जमीन में हरी भरी फसल लहलहाए,चिडियां चाह्चाये, कोयल गीत गए
और लोग ऐसा नजारा देखकर झूम उठे और खुश  रहे!
उसकी बात ख़त्म ही हुयी थी,मै फिर पूछना चाहता था कि आपके छोटे कपडे जो
तन को नहीं ढक पा रहे है फैशन है या मज़बूरी!उतने में ही पीछे से
हमलावरों का जत्था आता दिखाई दिया,और वह औरत बचाओ-२ चिल्लाती हुई ,आगे
चली गयी,शायद इस आस में कि कोई देवदूत आ जाये और इन कातिलों से उसकी
रक्षा करे !मै दुखी मन से देखता रहा उस औरत की ओर,जब तक वह नजर  से ओझिल
नहीं हो गयी!
तभी आवाज आई किशन-किशन,मेरी माँ आ चुकी थी! मैंने उनको प्रणाम किया और
उनका बैग हाथ में लेकर घर वापिस चला आया ! उस आवाज में इतना दर्द,करुना
थी कि पत्थर भी पिघल जाये,लेकिन नहीं पिघले तो वो थे उन दरिंदों के
दिल,जो महज कुछ जमीन और अपने अस्तित्व के लिए माँ पर हमला करते रहे! वो
माँ "कृष्णा कब आओगे" कि गुहार लगाती रही लेकिन कृष्णा उसकी कुछ मदद ना
कर सका! क्यों कि कृष्णा को मिल गयी थी एक मसालेदार कहानी कल के लिए,जो
करा सकती थी उसका प्रमोशन,उसकी पदोन्नति!
आखिर कब तक माँ की अस्मिता को गिरवी रख कर चलता रहेगा पदोन्नति का खेल?कब तक...?

Thursday, October 6, 2011

मौत को मात...और मौत से मात

जिंदगी तो वेवफा है एक दिन ठुकराएगी...मौत महबूबा है अपनी साथ लेकर जाएगी...वाकई में कितनी सच्चाई नजर आती है...इन पंक्तियों में...जिंदगी और मौत दोनों जीवन की अमिट सच्चाई है...यथार्थ सच है...मगर डर किसी को मौत से नहीं है...तो जिंदगी कोई जीना नहीं चाहता...तो किसी को कोई जीने नहीं देता...बड़ी विडंबना है...इस दुनिया की...खैर जिंदगी और मौत के पहलू में क्या उलझना....सवाल सही गलत का है...बुराई पर अच्छाई का पर्व मनाया जा रहा है...लेकिन बुराईयां है कि खत्म होने का नाम नहीं ले रही हैं...बुरहानपुर में मानवता को शर्मसार करने वाली घटना सामने आई ...बुरहानपुर के बोहरडा गांव में एक अज्ञात व्यक्ति ने अपनी एक दिन की बेटी को जिंदा जमीन में गाढ़ दिया...लेकिन जैसे ही खेत मालिक अपने खेत में पहुंचा बच्ची के रोने की दुहाई भरी आवाज ने उसे झकझोर कर रख दिया....और इसके बाद उस बंदे बच्ची को ले जाकर अस्पताल में भर्ती कराया....जहां उसका इलाज कराया जा रहा है....इसके बाद प्रशासन और मंत्री की बारी आई...तो दोनों अस्पताल बच्ची की हालत का जायजा लेने पहुंची... डॉक्टरों का कहना है कि बच्ची बिल्कुल स्वस्थ है...तो मंत्री अर्चना चिटनीस ने आगे आते हुए...बच्ची की देखरेख की जिम्मेदारी खुद पर ली...खैर बच्ची तो बचा ली गई...लेकिन सवाल समाज पर खड़ा होने लगा...और मुख्यमंत्री की मुहिम पर भी...इतना प्रचार प्रसार करने के बाद भी लोगों पर बेटी बचाओ अभियान का असर क्यों नहीं हो रहा है....क्यों अभी तक लोग बेटी को अभिशाप मानते हैं....क्यों बेटी के लिए एक कदम आगे आते हैं....खैर बुराई है...एक दिन में खत्म नहीं हो सकती...राम रावण का युद्ध भी एक दिन में खत्म नहीं हुआ....इसके लिए राम को 14 बर्ष का वनवास झेलना पड़ा....तो दूसरी तस्वीर इंदौर के राउ की जहां अपने परिजनों का पेट पालने के लिए पटाखा फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूरों को अनायास ही मौत की सजा मिल गई...यानि दशहरे का दिन उनके लिए काल बनकर आया....और लील ली 7 जिंदगियां....कई घायल भी हुए...जिनका इलाज इंदौर के एमवाय अस्पताल में चल रहा है...मुआवजे की घोषणा भी सरकार की तरफ से कर दी गई...लेकिन उनका क्या जो इस दुनिया में नहीं रहे....प्रशासन की लापरवाही उजागर जरुर होती है....क्यों कि राउ के 6 घरों में विस्फोटक सामग्री भी बरामद हुई है....

जिंदगी और मौत की दो अलग अलग घटनाओं में एक ने दुधमुंही को मौत देनी चाही तो उसने मौत को ही मात दे दी....लेकिन दूसरी घटना में जिनकी परिजनों को जिनकी जरुरत थी....जो परिवार को पालते थे...वो दुनिया से चले गए...मतलब साफ है....जिसकी चाहत हम रखते हैं वो मिलता नहीं...और जो मिलता है...उससे हम संतुष्ट नहीं...दो घटनाएं तो यहीं बयां कर रही है...खैर जिंदगी चलती रहती है....लेकिन दिल के रावण को मारना होगा....तभी दशहरा पर्व सही मायने में मनाना सच साबित होगा....

-कृष्ण कुमार द्विवेदी

Tuesday, October 4, 2011

जिंदगी,जंग और लाचारी....



जिंदगी,जंग और लाचारी....कैसा मेल है तीनों का...जिंदगी जीना है...तो जंग भी लड़नी पड़ेगी....इस जंग में जीते तो सिकंदर बनोगे....हारे तो लाचारी छा जाएगी...गजब का संयोग है...जिंदगी से लड़ने का माद्दा हर किसी में नहीं होता...ऐसे में अगर जीत से पहले ही मौत आ जाए...तो हालत कैसी होती है...जरा ये भी देख लीजिए...उससे पहले बेबसी की जरा ये तस्वीर देखिए...सिसक सिसक कर रो रही इस महिला पर मुफलिसी की ऐसी मार पड़ी कि सात जन्म का साथ निभाने वाला पति भी इसका साथ छोड़ गया...इतना ही नहीं गरीबी और मजबूरी में जब कोई आगे नहीं आया तो इस महिला को वो करना पड़ा जिसकी इजाजत हिंदू धर्म नहीं देता... गरीबी की ये दास्तां जशपुर के कोतबा नगर पंचायत की है..जहां मृतक हेम राम मजदूरी कर अपने परिवार की परविस करता था...लेकिन अचनाक हेम राम बीमार पड़ गया...और पैसे के अभाव में इलाज न करा पाने की वजह से उसे इस दुनिया से रुखसत होना पड़ा...लेकिन मरने के बाद भी लाचारी ने उसका पीछा नहीं छोड़ा...और लड़की के अभाव में बिना चिता के ही उसका अंतिम संस्कार करना पड़ा...जानकी ने कभी नहीं सोचा था कि उसकी जिंदगी में ऐसा भी दौर आएगा...पति की मौत के बाद जानकी ने चिता की लकड़ी के लिए नगर पंचायत कोतबा के सीएमओ से भी गुहार लगाई...लेकिन यहां उसकी नहीं सुनी गई...जानकी वन विभाग के वन रक्षक के पास भी गई...लेकिन यहां भी उसे निराशा मिली...थक हार कर जानकी ने स्थानीय वार्ड पार्षदों से भी फरियाद की..लेकिन क्या मजाल कोई मदद को आगे आ जाए...कुछ ऐसा ही मामला बुंदेलखंड क्षेत्र के छतरपुर का भी है....जहां एक गरीब को चिता के लिए लकड़ियां भी नसीब नहीं हुई...मानवीयता को शर्मसार करने वाली ये घटना छतरपुर के सिंचाई कॉलोनी की है..जहां रहने वाले निरपत यादव और उसकी पत्नी की पूरी जिंदगी गरीबी के बोझ तले बीती और मरने के बाद इस बदनसीब को दो गज कफन और लकड़ी भी नसीब नहीं हुई...होती भी कैसे,जिस घर में खाने के लिए अनाज का एक दाना भी न हो भला उसकी विधवा कफन औऱ लकड़ी का इस्तेमाल कहां से करती।फिर भी घर के खिड़की दरवाजे और साइकिल के टायरों से इस वृद्द महिला ने अपने पति का अंतिम संस्कार किया।
गरीबों के हित में सरकार कई योजनाएं चलाने का दावा करती है...इन गरीबों के ऐसे अंतिम संस्कार के बाद सरकार की इन योजनाओं पर भी सवालिया निशान लगता है....






Tuesday, March 8, 2011

मां का दूध बिकाऊ है?

मां,एक ऐसा शब्द जिसमे संसार का हर गूढ़ सार निहित है..मां..जिसने भगवान को भी जन्म दिया है...मां की ममता अपार है..वेद,पुरानों में भी मां की महिमा का बखान किया गया है...कहा जाता है...पूत कपूत भले ही हो जाए,माता नहीं कुमाता होती...मां के दूध पान करने के बाद बच्चा स्वस्थ तो रहता ही है..साथ ही मां के दिल से भी जुड़ जाता है...मुझे एक फिल्म याद आती है...दूध का क़र्ज़..जिसमे एक मां सांप के बच्चे को अपना दूध पिलाकर पालती है...वो सपोला भी बड़ा होकर मां के दूध का क़र्ज़ चुकाता है...लेकिन वर्तमान में जैसी स्थिति देखने में आ रही है..उसे देखकर लगता है...शायद ही बच्चे अपनी मां का स्तनपान कर पायें...मां की कोख तो पहले ही बिक चुकी थी..अब मां का दूध भी बिकेगा..यानि मां के दूध की बनेगी आइसक्रीम...लन्दन में पिछले शुक्रवार से बेबिगागा नाम से ये आइसक्रीम मिलने लगी है..लन्दन के कोंवेंत गार्डेन में ये आइसक्रीम मिल रही है...इस सोच को इजाद किया मैट ओ कूनीर नाम के एक सज्जन ने..इसकी कीमत १४ पोंड रखी गई है...यानि १०२२ रुपये...इसके लिए ऑनलाइन फोरम मम्सनेट के ज़रिये विज्ञापन से दूध माँगा गया था..जिसमे १५ मांओं ने अपना दूध बेंचा....यदि इसकी बिक्री ने जोर पकड़ा तो शायद दूसरे देशों से भी दूध मंगाया जाएगा...सवाल ये नहीं कि मां का दूध बिक रहा है...सवाल है कि जब मां का दूध बिकेगा तो बच्चे क्या पियेंगे..और जब मां का दूध नहीं मिलेगा उन्हें..तो उनके भविष्य की दशा और दिशा क्या होगी?क्या वे उतनी ही आत्मीयता से अपनी मां को मां कहकर पुकारेंगे...या केवल शर्तों पर आधारित रह जाएगा ये रिश्ता भी?सवाल कई ज़ेहन में है...दिमाग में कीड़े की भांति खा रही ये घटना...लेकिन ये उन साहिबानों के लिए ज़रूर उपयोगी होगी जिन्होंने मां की ममता जानी ही नहीं...मां का प्यार उनको मिला ही नहीं...मां का दूध कभी हलक के नीचे गया ही नहीं...इसी बहाने कम से कम मां के दूध का पान तो कर ही लेंगे...एक सवाल हिंदुस्तान के सन्दर्भ में...इतनी मंहगी आइसक्रीम को खरीदेगा कौन?वही लोग जिनके पास अनाप सनाप पैसा है...शोहरत है...हर ऐशो आराम है...लेकिन मां का आँचल का सुख कभी नहीं ले पाए....क्या होगा इस आइसक्रीम का?जो भी इस आइसक्रीम का स्वाद लेगा निश्चित रूप से वो उस मां का बेटा अप्रत्यक्ष तौर पर हो जाएगा...क्यों कि अगर ऐसा नहीं होता तो शायद भगवान कृष्ण माता यशोदा को मैया नहीं कहते....निश्चित रूप से व्यावसायिक दिमाग रचनात्मक होता है....अपने फायदे के लिए किसी भी हद तक सोच सकता है..और उसी का नतीजा....पता नहीं क्यों मेरे मस्तिष्क में रह रह कर एक विचार आ रहा है..कि ये हमारे कर्मों का नतीजा है...हमने ज्यादा दूध निकालने के फेर में गायों के बछड़ों को दूध नहीं पीने दिया...और शायद उसका प्रतिफल अब देखने को मिलेगा..कि समाज के बच्चे मां के दूध को तरसेंगे..और मां का दूध उनकी ही आँखों के सामने बिकने विदेश जा रहा होगा.....सवाल मां की ममता का है...सवाल मां की गरिमा का है...रोक सको तो रोक लो....
-कृष्ण कुमार द्विवेदी
छात्र(मा.रा.प.विवि,भोपाल)

Thursday, February 24, 2011

वह तोड़ता पत्थर...

उत्तर प्रदेश का सबसे छोटा और पिछड़े जिला में शुमार,आल्हा ऊदल की नगरी के नाम से ख्याति प्राप्त,वीर भूमि वसुंधरा के नाम से उद्बोधित..पानों का नगर..महोबा अपने में कई ऐतिहासिक तथ्यों को अपने में लीन किये है...बुंदेलखंड क्षेत्र से सबसे ज्यादा मंत्री होने के बावजूद ये जिला अपने काया कल्प और विकास के लिए आज भी सरकारी बाट जोह रहा है...पता नहीं कब तस्वीर बदलेगी..इस क्षेत्र की..यहाँ के नुमाइंदों की...खैर आज राजनैतिक बातें नहीं...मुद्दे की बात..
जिसने लोगों की सेवा में लगा दिया अपना बचपन .. जिले से राज्य और फिर राष्ट्र स्तर के बटोरे ढेरों पुरस्कार....जिस पर राष्ट्रपति भी हो गए निहाल..और दिया राष्ट्रपति सम्मान..जो बना युवाओं का आदर्श...मगर अफ़सोस कि वो मुफलिसी से हार गया..पेट की भूंख और रिश्तों के निर्वहन के दायित्व ने उसे तोड़ कर रख दिया..विधवा मां की बीमारी और तंगहाली से जूझने की राह ढूंढने में नाकाम हो गया वो.. लेकिन अभी भी उसमे हौसला है..उसको है अपनी जिम्मेदारियों का एहसास...जिसके लिए वो गिट्टी तोड़ने में हाड़तोड़ मेहनत कर वह अपनी पढ़ाई भी करता है और बीमार मां व बहन की परवरिश भी... मां के इलाज व बहन की शादी के लिये पैसे से लाचार ये कर्मवीर अब इस उधेड़बुन में है कि किसी तरह बहन के हाथ पीले करे..
इस कर्म योद्धा की कहानी सुनकर मुझे एक गीत कि पंक्तियाँ याद आती हैं...
बचपन हर गम से बेगाना होता है...
मगर कबरई कस्बे के राजेंद्र नगर के निवासी 17 साल के श्यामबाबू को नहीं पता कि बचपन क्या होता है...इसके होश संभालने के पहले पिता का साया इसके ऊपर से उठ चुका था..जिस उम्र में इसे अपने हम उम्र साथियों के साथ खेलना चाहिए था..उस समय इसके हाथ अपने परिवार को पालने के लिए हथौड़ा चलाते लगे... जब इसको अपना जीवन संवारना चाहिए तो इसे अपनों की रुश्वाइयों का शिकार होना पड़ा....बड़े भाई ने बीमार मां व छोटे भाई बहनों को छोड़ अपनी अलग दुनिया बसा ली...न रहने को मकान था और न एक इंच जमीन, कोई रोजगार भी नहीं.. इन कठिन हालात में इस कर्मवीर ने कस्बे के पत्थर खदानों में हाड़तोड़ मेहनत कर स्वयं मां व छोटे भाई बहनों की रोटी तलाश की...समाजसेवा का जज्बा होने के कारण अध्ययन के दौरान विविध गतिविधियों में हिस्सा ले खुद को तपाया...स्काउट गाइड, रेडक्रास सोसायटी, राष्ट्रीय अंधत्व निवारण कार्यक्रम, राजीव गांधी अक्षय ऊर्जा कार्यक्रम जैसे तमाम आयोजनों में इस मेधा को प्रशिस्त पत्र दे सम्मानित किया गया...सम्मान और पुरस्कारों का क्रम जिले से शुरू हो राज्य और राष्ट्र स्तर तक पहुंचा...12 साल की उम्र में राज्यपाल टीवी राजेश्वर और 14 जुलाई 10 को राष्ट्रपति ने स्काउट गाइड के रूप में बेहतर सेवा के लिये इसे सम्मानित किया.... राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित यह किशोर अभी भी पत्थर खदानों में मजदूरी कर रहा है... बीमार मां के इलाज और सयानी बहन की शादी कैसे हो यह सवाल उसे खाये जा रहा है...हर पल उसे चिंता की आग में जला रहा है... जिले का गौरव बढ़ाने वाले इस किशोर के पास रहने को झोपड़ी तक नहीं...अब तक नाना नानी के घर में शरणार्थी की तरह रहने वाले इस परिवार को अब वहां भी आश्रय नहीं मिल पा रहा है... जिले से राष्ट्रीय स्तर तक तमाम प्रतियोगिताएं जीत चुका यह किशोर असल जिंदगी की प्रतियोगिता का मुकाम हासिल नहीं कर पा रहा है.. शादी योग्य बहन के हाथ पीले न कर पाने की लाचारी में वह इसे देख निगाहें झुका लेने को मजबूर है..राज्य स्तर के ढेरों पुरस्कारों व स्काउट गाइड में राष्ट्रपति से सम्मानित श्यामबाबू को किसी सरकारी योजना में शामिल नहीं किया गया... इसके पास न रहने को घर है न एक इंच भूमि... परिवार में कोई कमाने वाला भी नहीं... हद यह कि इस परिवार को गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन का कार्ड भी हासिल नहीं हुआ... प्रशासन चाहता तो कांशीराम आवास योजना के तहत इसे छत तो दे ही सकता था पर वह भी नसीब नहीं हुई... इंदिरा और महामाया आवास भी नहीं मिले... हालात से जाहिर है जिले में ऐसे जरूरतमंद उंगलियों में गिनने लायक ही होंगे.... लेकिन ऐसे इन्हीं लोगों को जब छत और रोजगार न मयस्सर हो तो फिर सरकारी योजनाओं का लाभ किसे दिया जा रहा है....अपने आप में एक बड़ा सवाल है....
प्रतिभा तोडती पत्थर या पत्थरों से टूटती प्रतिभा इसे क्या कहा जाए..आप खुद सोचिये..

Thursday, February 17, 2011

हम उपभोक्ता नहीं निर्माता हैं...

लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती
नन्ही चीटी जब दाना लेकर चलती है
चढ़ती दीवारों पर सौ बार फिसलती है
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है
चढ़कर गिरना,गिरकर चड़ना न अखरता है
.......
हरिवंशराय बच्चन की ये पंक्तियाँ बरबस ही याद आ गई...
राजधानी भोपाल के पास एक ग्राम पंचायत कुकरीपुरा का गाँव त्रिवेणी...जिसमे लोगों की मदद और सरकारी योजना के चलते बिजली से जगमग हो गया...एक ओर जहाँ राज्य सरकार केंद्र सरकार पर कोयला न देने का आरोप लगा रही है...और बिजली की कमी का रोना रो रही है....तो दूसरी ओर ग्रामीणों का सकारात्मक प्रयास से गाँव बिजली से रोशन हो गया...वहीँ त्रिवेणी के आसपास के गाँव अँधेरे में डूबे रहते है....करीब छह सौ की आबादी वाला ये गाँव जिसमे आधे से ज्यादा घरों के शौचालयों के टैंक सीवर लाइन से जोड़े गए...और फिर केंद्र सरकार की ग्रामीण स्वच्छता योजना के तहत इस मल से बायो गैस के ज़रिये बिजली उत्पादन किया जा रहा है...करीब ५ मेगावाट बिजली उत्पादित हो रही है इस गाँव में...गाँव के लोग अब बिजली के लिए अँधेरे में एक दूसरे का मुंह नहीं तकते हैं...बल्कि इस बिजली से गलियों में ट्यूब लाईट जलाई जाती है...किसी की शादी विवाह में भी रोशनी के लिए इसका उपयोग किया जा रहा है...सामुदायिक भवन भी रोशन हो रहा है...गाँव वालों का कहना है कि अभी जब पूरे घरों के सीवर टैंक इससे जुड़ जायेगे तो उत्पादन और बढ़ जायेगा..अब ग्रामीण न केवल टेलीवीजन चलाते हैं बल्कि एफ.एम. का आनंद भी लेते है....खैर...मेहनत तो रंग लाती ही है...बस जरूरी होता है ज़ज्बा..जोश..जूनून...और काम के प्रति लगन...
आप मेरी तकदीर क्या लिखेगें दादू?वो मेरी तकदीर है..जिसका नाम है विधाता....संजय दत्त का ये डायलोग विधाता फिल्म का याद आ गया....इस गाँव को देख कर क्या कहू...समझ नहीं आ रहा है...इतना खुश हूँ कि गाँव में रहने वाले दीन हीन लोग भी अब अपनी तरक्की के लिए आगे आ रहे हैं...और अपने विकास की इबारत भी खुद ही लिख रहे हैं....बस यही ज़ज्बा सब में आ जाये तो हिंदुस्तान को विकसित राष्ट्र बनने में ज्यादा समय नहीं लगेगा....