Monday, October 25, 2010

अब पत्रकार नहीं बनूगा...

एक वक़्त जब हम पर चढ़ा था बुखार,बनूगा पत्रकार
जन आशीष की चाह थी,चाह थी तो राह थी
एक दिन हश्र देखा,जब कलम की ताक़त का
हुआ अहसास वक़्त की नजाकत का
देश के बड़े पत्रकार और यूपी की माया
कलम को पुलिस के आगे लाचार पाया
पुलिस को शांति भंग की थी आशंका
डर था कहीं हनुमान जला न दे लंका
बस पत्रकार की मां को बिठा दिया थाने में
(करतूत उनकी थी)जो बिकते है रुपये आठ आने में
पत्रकार बेटे ने दिया घर की इज्ज़त का हवाल
पुलिस ने भी किये उससे सवाल दर सवाल
बेटे ने जब पुलिस को कानून का पाठ पढाया
लेकिन कानून भी सत्ता के आगे मजबूर नज़र आया
१८ घंटे बाद बमुश्किल,बेटा मां को आज़ाद करा पाया
धन्य है प्रशासन,धन्य है माया की माया
मां की आँखों का हर आंसू एक कहानी था
जेल में बीता हर पल एक लम्बी जिंदगानी था
देश की शसक्त महिलाए भी बेजुबान हो गई
या फिर माया बदगुमान हो गई
मै देखकर ये सब परेशां हो गया
बक बक करने वाला युवा बेजुबान हो गया
इस पूरी घटना में प्रशासन की तानाशाही थी
मां की आँखों में हर पल,बस सत्ता की तवाही थी
-कृष्ण कुमार द्विवेदी

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