Thursday, October 16, 2008

दिल तो जनता के पास

दिल तो जनता के पास होता है
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अष्टभुजा शुक्ल
एवरेस्ट पर खड़े होकर, परियार प्रदेश की ओर मुंह करके, दोनों हाथ उठाकर राम जाने कहा जा सकता है कि तुलसीदास हिन्दू धर्म के ब्राह्मणवादी कवि हैं। इस तु... से लेकर हैं तक बनने वाले प्रत्याहार में निश्चित तौर पर तुलसी की उतनी लानत-मलामत भरी हुई है जितनी कि हिन्दी के किसी भी तथाकथित बुध्दिजीवी के लिए संभव है। कुछ क्षिप्र-ज्ञानियों के लिए तो तुलसी सिर्फ अवधी की सीमित बोली के कवि हैं। हिन्दी की व्यापकता के लिहाज से उनका मन, सोच, संवेदना और हृदय बहुत संकीर्ण है। विप्र-विरूध्द, शुद्र-अवमानना और स्त्री प्रतारणा इसके अकाटय प्रमाण हैं। बेशक, इस दृष्टि से तुलसी की आलोचना उचित है और होनी भी चाहिए। लेकिन तुलसी एक महान् कवि हैं इसलिए उनके पास भी अपने समय की तीखी आलोचना करने वाली व्यापक दृष्टि है। कलिकाल ही तुलसी का समकाल है। इसलिए 'कलि के कविन्ह करऊं परनामा' से शुरू होकर वे 'कलिकाल बेहाल भए मनुजा...' तक आर-पार देख पाते हैं। तुलसी तथाकथित साधु-संतों और तपस्वियों को न तो बख्शने वाले हैं और न ही गृहस्थों की दुर्दशा से आंख मूंद लेने वाले। इस कलि-कौतुक पर भी उनकी टिप्पणी गौरतलब है - तपसी धनवन्त दरिद्र गृही, कलि-कौतुक तात न जात कही। तो तात! तु शब्द से एक तौतातिक मत का ही निर्माण यहां हुआ है जिसकी चर्चा यहां व्यर्थ है।
सार्थक बात यह है कि तुलसी के लिए कलिकाल ही काल की एक अवधारणा है जिसका आंखों देखा हाल उन्होंने प्रसारित किया है। जिसे प्रज्ञाचक्षु भी देख सकते हैं। लेकिन सदा-सर्वदा जनसमाज बौध्दिक समाज से इत्तफाक नहीं रखता। बौध्दिक समाज जिस तरह सोचता है, जैसा पुलाव पकाता है, बिम्बों, प्रतीकों या मिथकों की जैसी व्याख्या करता है, जनसमाज कभी-कभी उसे सिर के बल खड़ा कर देता है और चीजों को अपने ही ढंग से बरतता है या 'डील' करता है। अपने गंवारूपन से भी वह आपके तीन-पांच को समझ लेता है। तुलसी लाख समझाते रह गए कि विभीषण ही लंका की नाक है, अपने राम का पक्का भक्त है, दांतों के बीच बिचारी जीभ जैसी उसकी दशा है, लंका के जिस राज को रावण दस बार अपने ही हाथों अपना गला काटकर पाया है उसे राम ने विभीषण को साभार प्रदान किया। अत: विभीषण को बहुत ही 'नीट एण्ड क्लीन' मानना चाहिए। पर जनता तुलसी की भी कोई दलील मानने को तैयार नहीं। वह विभीषण को अब भी 'घर का भेदिया, देशद्रोही या भ्रातृहंता' ही मानती है। जनकवि तुलसी विभीषण की छवि सुधारने की कोशिश में लगातार लगे रहे लेकिन 'मूढ़' जनता आज तक विभीषण को कटघरे में खड़ी करती रही। मैं सोचता हूं कि हिन्दुस्तान में असली दोगला कौन है? बुध्दिजीवी या जनता?
हिन्दुस्तान में हिन्दू लगातार असहिष्णु, बर्बर और हिंसक हुआ है। गुजरात नरसंहार की लोमहर्षक रपटें इसकी साक्ष्य हैं। ऐसी संगठित सांप्रदायिक हिंसा को कदापि जायज नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन उन्माद के ऐसे ध्रुवीकरण से क्षुब्ध हिन्दू बुध्दिजीवियों को भी अपने गिरेबां में झांकने की फुर्सत नहीं। वे अपने जनविश्वासों की जितनी अनुदार भर्त्सना और थू-थू जैसे ताल ठोंक कर करते हैं, जितना आक्रामक होकर कुठाराघात करते हैं, वे जनता की सोच और कल्पनाओं से बेखबर अपनी राजनीति के शिकार अधिक होते हैं। यह विचारणीय है कि कहीं बुध्दिजीवियों के बड़बोलेपन की प्रतिक्रिया में भी तो समाज इतना कट्टर नहीं होता जा रहा है? तुलसी अगर कट्टर हिन्दू कवि हैं भी तो वे अन्य संप्रदायों के विरूध्द एक शब्द भी नहीं बोलते और अपने समकाल में नहीं बोलते। और बोलते हैं तो 'नहिं जानत हैं अनुजा-तनुजा' तक। ऐसी साफगोई कि दिल का एतबार क्या कीजै? हिन्दू बुध्दिजीवी खुद को ऐसे निरपेक्ष 'मनुष्य' के रूप में पेश करने को आतुर रहता है कि जनता उसके ढोंग से ऊब जाती है। इतना ही नहीं अपने विश्वासों पर अपनों द्वारा ही इतने तीखे हमलों से तिलमिलाकर भी उसके प्रतिहिंसक होने की संभावनाएं लगातार बनी रहती हैं। सांप्रदायिक विद्वेष को हवा देने वाली ताकतें ऐसी जनभावना को हर -हमेशा भुनाने की ताक में लगी रहती हैं और फौरी तौर पर अपने नापाक मनसूबों में कामयाब भी हो जाती हैं। शायद यही वजह है कि ऊपरी तौर पर तमाम चिल्ल-पों के बावजूद और सांप्रदायिक निर्मूलन के लिए हलकान दिखने वाले पहलवान कोई करामात दिखा पाने में असमर्थ सिध्द होते जा रहे हैं। आखिर सामाजिक सौहार्द्र क्यों कर इस तरह कम होता जा रहा है कि एक शांतिप्रिय समुदाय इतना उग्र और क्रूर नजर आने लगा है? कहीं हमारी नीयत में ही तो कोई खोट नहीं?
लेकिन आत्मालोचन भी एक बड़ा साहस है। अपनों और अपने समाज की रूढ़ियों और जड़ताओं को अनावृत करते जाने में भी बुध्दिजीवी की एक कारगर भूमिका होती है। तुलसी ने अपने समकाल में उन्हें पूरी शिद्दत के साथ प्रश्नांकित किया है। किंतु बहुत ही संयत ढंग से। लेकिन दिनकर जी ने ठीक ही कहा था -किंतु हाय। तप का वश चलता सदैव नहीं, पतित समूह की कुवृत्तियों के सामने। सामने अगर पतित समूह हो, नृशंस रूप से अमानुषिक और हिंसक हो तो सारा अनुनय- विनय अरण्यरोदन बनकर रह जाता है। ऐसी मनुष्यद्रोही शक्तियों का जमकर प्रतिरोध भी होना चाहिए और कटुतम प्रतिवाद भी। इस दृष्टि से हिन्दू बुध्दिजीवी मौजूदा परिदृश्य में साहसिक ही माने जाएंगे कि वे अपने समुदाय की धर्मान्धता पर और उसे हाईजैक करने की ताक में लगे कुटिल मनोरथों पर ताबड़तोड़ चोट कर रहे हैं। इस लिहाज से देखा जाए तो गैर हिन्दू बुध्दिजीवी मजहब जैसे संवेदनशील मुद्दे पर अक्सर बहुत ही लचीला रूप अख्तियार कर लेता है। एक खास एहतियात के साथ अपनी तकरीर पेश करता है ताकि लाठी भी न टूटे। उसके लिए महजब प्रमुख हो जाता है, बाकी चीजें गौण। खासतौर से हिन्दुस्तान के गैर हिन्दू बुध्दिजीवी मित्रों में ऐसी लाचारी अक्सर हां दिखती है। दीगर मुल्कों के रूश्दी, तस्लीमा, इस्मत आपा जैसे तरक्की पसंद लोग जैसे ही मजहब के घेरे से नुक्ता भर बाहर आते हैं, उनके सिर कलम करने के बख्शीश रख दिये जाते हैं। उनका सामाजिक बहिष्कार होता है, कातिलाना हमले होते हैं लेकिन हिन्दुस्तान के कौमी बुध्दिजीवियों का रूख अफसोसजनक रूप से बहुत ही ठंडा अथवा नपा-तुला होता है। उनके अल्फाजों में मजहब की भाप मिली रहती है। इस लिहाज से गौर करें तो पुराने भोपाल की बड़ी मस्जिद एक नायाब मिसाल है जिसके चौतरफा हिन्दुओं की दुकानें हैं और रहाइश मुसलमान भाइयों की और यह पहले ही कहा जा चुका है कि जन समाज सदा-सर्वदा बौध्दिक समाज से इत्तफाक नहीं रखता। वह अपनी ही तरह से जीता, सोचता और 'डील' करता है।
दरअसल जब बुध्दिजीवी भी नस्ली और मजहबी शुध्दता के प्रति बेहद ईमानदारी बरतता है तो सामान्य जनता भी उससे अपने फर्लांग कुछ और ही बढ़ा लेती है। आज जैसा आधुनिक विश्वसमाज बन रहा है, उसे देखते हुए जन्म शताब्दी वर्ष में हजारी प्रसाद द्विवेदी की ये पंक्तियां मील का पत्थर साबित होंगी - सब कुछ अविशुध्द है। शुध्द है तो केवल मनुष्य की जिजीविषा। संभवत: तुलसी भी उतने कट्टर हिन्दू और शुध्द ब्राह्मणवादी नहीं, जितना कि उन्हें सिध्द करने की प्रचेष्टा की जा रही है। उनके विद्रूपों पर कोई रबर न भी लगाया जाय तो भी वे पक्के और सच्चे जनकवि हैं। बुध्दिजीवी के पास दिमाग भले एवरेस्ट जितना ऊंचा हो, लेकिन दिल तो है दिल.... दिल जनता के पास होता है।
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अष्टभुजा शुक्ल
एवरेस्ट पर खड़े होकर, परियार प्रदेश की ओर मुंह करके, दोनों हाथ उठाकर राम जाने कहा जा सकता है कि तुलसीदास हिन्दू धर्म के ब्राह्मणवादी कवि हैं। इस तु... से लेकर हैं तक बनने वाले प्रत्याहार में निश्चित तौर पर तुलसी की उतनी लानत-मलामत भरी हुई है जितनी कि हिन्दी के किसी भी तथाकथित बुध्दिजीवी के लिए संभव है। कुछ क्षिप्र-ज्ञानियों के लिए तो तुलसी सिर्फ अवधी की सीमित बोली के कवि हैं। हिन्दी की व्यापकता के लिहाज से उनका मन, सोच, संवेदना और हृदय बहुत संकीर्ण है। विप्र-विरूध्द, शुद्र-अवमानना और स्त्री प्रतारणा इसके अकाटय प्रमाण हैं। बेशक, इस दृष्टि से तुलसी की आलोचना उचित है और होनी भी चाहिए। लेकिन तुलसी एक महान् कवि हैं इसलिए उनके पास भी अपने समय की तीखी आलोचना करने वाली व्यापक दृष्टि है। कलिकाल ही तुलसी का समकाल है। इसलिए 'कलि के कविन्ह करऊं परनामा' से शुरू होकर वे 'कलिकाल बेहाल भए मनुजा...' तक आर-पार देख पाते हैं। तुलसी तथाकथित साधु-संतों और तपस्वियों को न तो बख्शने वाले हैं और न ही गृहस्थों की दुर्दशा से आंख मूंद लेने वाले। इस कलि-कौतुक पर भी उनकी टिप्पणी गौरतलब है - तपसी धनवन्त दरिद्र गृही, कलि-कौतुक तात न जात कही। तो तात! तु शब्द से एक तौतातिक मत का ही निर्माण यहां हुआ है जिसकी चर्चा यहां व्यर्थ है।
सार्थक बात यह है कि तुलसी के लिए कलिकाल ही काल की एक अवधारणा है जिसका आंखों देखा हाल उन्होंने प्रसारित किया है। जिसे प्रज्ञाचक्षु भी देख सकते हैं। लेकिन सदा-सर्वदा जनसमाज बौध्दिक समाज से इत्तफाक नहीं रखता। बौध्दिक समाज जिस तरह सोचता है, जैसा पुलाव पकाता है, बिम्बों, प्रतीकों या मिथकों की जैसी व्याख्या करता है, जनसमाज कभी-कभी उसे सिर के बल खड़ा कर देता है और चीजों को अपने ही ढंग से बरतता है या 'डील' करता है। अपने गंवारूपन से भी वह आपके तीन-पांच को समझ लेता है। तुलसी लाख समझाते रह गए कि विभीषण ही लंका की नाक है, अपने राम का पक्का भक्त है, दांतों के बीच बिचारी जीभ जैसी उसकी दशा है, लंका के जिस राज को रावण दस बार अपने ही हाथों अपना गला काटकर पाया है उसे राम ने विभीषण को साभार प्रदान किया। अत: विभीषण को बहुत ही 'नीट एण्ड क्लीन' मानना चाहिए। पर जनता तुलसी की भी कोई दलील मानने को तैयार नहीं। वह विभीषण को अब भी 'घर का भेदिया, देशद्रोही या भ्रातृहंता' ही मानती है। जनकवि तुलसी विभीषण की छवि सुधारने की कोशिश में लगातार लगे रहे लेकिन 'मूढ़' जनता आज तक विभीषण को कटघरे में खड़ी करती रही। मैं सोचता हूं कि हिन्दुस्तान में असली दोगला कौन है? बुध्दिजीवी या जनता?
हिन्दुस्तान में हिन्दू लगातार असहिष्णु, बर्बर और हिंसक हुआ है। गुजरात नरसंहार की लोमहर्षक रपटें इसकी साक्ष्य हैं। ऐसी संगठित सांप्रदायिक हिंसा को कदापि जायज नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन उन्माद के ऐसे ध्रुवीकरण से क्षुब्ध हिन्दू बुध्दिजीवियों को भी अपने गिरेबां में झांकने की फुर्सत नहीं। वे अपने जनविश्वासों की जितनी अनुदार भर्त्सना और थू-थू जैसे ताल ठोंक कर करते हैं, जितना आक्रामक होकर कुठाराघात करते हैं, वे जनता की सोच और कल्पनाओं से बेखबर अपनी राजनीति के शिकार अधिक होते हैं। यह विचारणीय है कि कहीं बुध्दिजीवियों के बड़बोलेपन की प्रतिक्रिया में भी तो समाज इतना कट्टर नहीं होता जा रहा है? तुलसी अगर कट्टर हिन्दू कवि हैं भी तो वे अन्य संप्रदायों के विरूध्द एक शब्द भी नहीं बोलते और अपने समकाल में नहीं बोलते। और बोलते हैं तो 'नहिं जानत हैं अनुजा-तनुजा' तक। ऐसी साफगोई कि दिल का एतबार क्या कीजै? हिन्दू बुध्दिजीवी खुद को ऐसे निरपेक्ष 'मनुष्य' के रूप में पेश करने को आतुर रहता है कि जनता उसके ढोंग से ऊब जाती है। इतना ही नहीं अपने विश्वासों पर अपनों द्वारा ही इतने तीखे हमलों से तिलमिलाकर भी उसके प्रतिहिंसक होने की संभावनाएं लगातार बनी रहती हैं। सांप्रदायिक विद्वेष को हवा देने वाली ताकतें ऐसी जनभावना को हर -हमेशा भुनाने की ताक में लगी रहती हैं और फौरी तौर पर अपने नापाक मनसूबों में कामयाब भी हो जाती हैं। शायद यही वजह है कि ऊपरी तौर पर तमाम चिल्ल-पों के बावजूद और सांप्रदायिक निर्मूलन के लिए हलकान दिखने वाले पहलवान कोई करामात दिखा पाने में असमर्थ सिध्द होते जा रहे हैं। आखिर सामाजिक सौहार्द्र क्यों कर इस तरह कम होता जा रहा है कि एक शांतिप्रिय समुदाय इतना उग्र और क्रूर नजर आने लगा है? कहीं हमारी नीयत में ही तो कोई खोट नहीं?
लेकिन आत्मालोचन भी एक बड़ा साहस है। अपनों और अपने समाज की रूढ़ियों और जड़ताओं को अनावृत करते जाने में भी बुध्दिजीवी की एक कारगर भूमिका होती है। तुलसी ने अपने समकाल में उन्हें पूरी शिद्दत के साथ प्रश्नांकित किया है। किंतु बहुत ही संयत ढंग से। लेकिन दिनकर जी ने ठीक ही कहा था -किंतु हाय। तप का वश चलता सदैव नहीं, पतित समूह की कुवृत्तियों के सामने। सामने अगर पतित समूह हो, नृशंस रूप से अमानुषिक और हिंसक हो तो सारा अनुनय- विनय अरण्यरोदन बनकर रह जाता है। ऐसी मनुष्यद्रोही शक्तियों का जमकर प्रतिरोध भी होना चाहिए और कटुतम प्रतिवाद भी। इस दृष्टि से हिन्दू बुध्दिजीवी मौजूदा परिदृश्य में साहसिक ही माने जाएंगे कि वे अपने समुदाय की धर्मान्धता पर और उसे हाईजैक करने की ताक में लगे कुटिल मनोरथों पर ताबड़तोड़ चोट कर रहे हैं। इस लिहाज से देखा जाए तो गैर हिन्दू बुध्दिजीवी मजहब जैसे संवेदनशील मुद्दे पर अक्सर बहुत ही लचीला रूप अख्तियार कर लेता है। एक खास एहतियात के साथ अपनी तकरीर पेश करता है ताकि लाठी भी न टूटे। उसके लिए महजब प्रमुख हो जाता है, बाकी चीजें गौण। खासतौर से हिन्दुस्तान के गैर हिन्दू बुध्दिजीवी मित्रों में ऐसी लाचारी अक्सर हां दिखती है। दीगर मुल्कों के रूश्दी, तस्लीमा, इस्मत आपा जैसे तरक्की पसंद लोग जैसे ही मजहब के घेरे से नुक्ता भर बाहर आते हैं, उनके सिर कलम करने के बख्शीश रख दिये जाते हैं। उनका सामाजिक बहिष्कार होता है, कातिलाना हमले होते हैं लेकिन हिन्दुस्तान के कौमी बुध्दिजीवियों का रूख अफसोसजनक रूप से बहुत ही ठंडा अथवा नपा-तुला होता है। उनके अल्फाजों में मजहब की भाप मिली रहती है। इस लिहाज से गौर करें तो पुराने भोपाल की बड़ी मस्जिद एक नायाब मिसाल है जिसके चौतरफा हिन्दुओं की दुकानें हैं और रहाइश मुसलमान भाइयों की और यह पहले ही कहा जा चुका है कि जन समाज सदा-सर्वदा बौध्दिक समाज से इत्तफाक नहीं रखता। वह अपनी ही तरह से जीता, सोचता और 'डील' करता है।
दरअसल जब बुध्दिजीवी भी नस्ली और मजहबी शुध्दता के प्रति बेहद ईमानदारी बरतता है तो सामान्य जनता भी उससे अपने फर्लांग कुछ और ही बढ़ा लेती है। आज जैसा आधुनिक विश्वसमाज बन रहा है, उसे देखते हुए जन्म शताब्दी वर्ष में हजारी प्रसाद द्विवेदी की ये पंक्तियां मील का पत्थर साबित होंगी - सब कुछ अविशुध्द है। शुध्द है तो केवल मनुष्य की जिजीविषा। संभवत: तुलसी भी उतने कट्टर हिन्दू और शुध्द ब्राह्मणवादी नहीं, जितना कि उन्हें सिध्द करने की प्रचेष्टा की जा रही है। उनके विद्रूपों पर कोई रबर न भी लगाया जाय तो भी वे पक्के और सच्चे जनकवि हैं। बुध्दिजीवी के पास दिमाग भले एवरेस्ट जितना ऊंचा हो, लेकिन दिल तो है दिल.... दिल जनता के पास होता है।

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