बदल गए आजादी के मायने.....
आजादी के ६४ वां जश्न हमने जोर शोर से मनाया.....मगर १९४७ के बाद इन ६४ सालों में हम इतने स्वतंत्र हुए की कुछ भी करने लगे....यानी हमारे नसीब में स्वतानता तो आई मगर हमारे हाथों की लकीरों में स्वतंत्रता की रेखाए मिटना शुरू हो गई...हम सब अपने को स्वतंत्र भले ही बोले मगर सत्य यही है की हम मानसिक और वैचारिक रूप से अभी भी गुलामी की जंजीरों में जकड़े हुए है...हम जब इतिहास उठाकर देखते है या किसी विद्वान से पूछते है की हमारी गुलामी के लिए कौन जिम्मेदार था...तो जवाब मिलता है राजाओ की आपसी फूट......लेकिन मै मानता हू कि यहाँ कि जनता सबसे ज्यादा जिम्मेदार थी.....जो केवल मौन होकर सब देखती रही.....अगर १८५७ के बाद जैसी क्रांति और जनसैलाब उसी समय एकत्रित हो जाता...तो विश्व कि किसी भी शक्ति में इतनी कुव्वत नहीं थी कि हमें पराधीनता कि बेड़ियों में जकड लेता.....यदि हमारी जनता उसी समय जाग जाती तो शायद दुनिया के मानचित्र में भारत कि अलग ही तस्वीर होती....फिर शुरू हुआ संविधान में अपने मन मुताबिक परिवर्तन का खेल..कभी लिव इन रेलन्संशिप को मंजूरी दी गयी,तो कभी धरा ३७७ को...
स्वतंत्रता के इस जीवन में हम इतने स्वतंत्र हुए कि हम भूल गए कि जिस गरिमामयी पद पर किसी देश का राजा शासन करता है उस पर हमने निरक्षर,अनपढ़ ,भ्रष्ट को बैठा दिया.....राजधानी भोपाल में एक मामला भी ऐसा ही है...कल तक जिसके हाथ में पेंचकस और प्लस हुआ करता था...आज वे एक मीडिया संसथान में लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को शिक्षित कर रहे है....और वह भी हिंदी जैसी भाषा?हिंदी जिसे हम मातृभाषा का दर्जा देते है उस मातृभाषा को वह व्यक्ति कैसे पढ़ायेगा....बात लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के भविष्य कि है.....अगर उस कोलेज में माइक और स्पीकर जोड़ने वाला व्यक्ति हिंदी पढ़ायेगा तो उन पत्रकारिता के छात्रो की दशा और दिशा का निर्धारण कैसे होगा?वे कितनी लम्बी रेस का घोडा बन पायेगे?ये कोई नहीं जनता....शायद वे भी नहीं!
विडंबना है ये कि एक बड़े ग्रुप के प्रशासनिक अधिकारी का खास होना उसके लिए वरदान साबित हुआ...और उसे बैक अप ऑफिस ब्यॉय से एक प्रवक्ता के रूप में प्रोन्नत कर दिया गया....क्या इस ग्रुप में और जगह नहीं थी क्या?जो उसे कहीं और समायोजित किया जाता...लेकिन बात थूक में सत्तू घोलने वाली है...कम खर्च में ज्यादा मुनाफा कमाने कि चाहत में,कोलेज प्रशासन ने पत्रकारिता के छत्रो का भविष्य अंधकार माय करने से भी परहेज नहीं किया....स्वतंत्रता है कोलेज प्रशासन को किसी को भी कहीं भी बैठने कि....
ऐसी ही जगहों पर स्वतंत्रता का दुरूपयोग किया गया....हम भूल गए कि जितनी स्वतंत्रता हमें है उतनी ही दूसरो को भी.....क्यों कि हमारी स्वतंत्रता वहां तक ख़त्म हो जाती है जहाँ दुसरे कि नाक शुरू होती है....
चार पंक्तियाँ....
जिनको नहीं था नोलेज,बस खोल दिया कोलेज
उनमे एक भट्टे वाला था,एक कट्टे वाला था,और एक चट्टे वाला था......
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