चौथा स्तम्भ पत्रकारिता और इस पांचवे वेद का लेखक यानी वेद व्यास,एक पत्रकारलेकिन बड़े दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि वर्तमान कार्पोरेट जगत में पत्रकार एक बंधुआ मजदूर बन चुका है जो बड़े ओहदे पर बैठे लोग और मालिक कहेगा अब वही पांचवे वेद की ऋचाये होगी,श्लोक होंगे
अब पत्रकारिता,पत्रकारों से नहीं बड़े-बड़े उद्योगपतियों से है गाडी,चालक और मालिक का जो सम्बन्ध होता है,वही सम्बन्ध पत्रकारिता,पत्रकार और मालिक का होता हैवह जो कहेगा,पत्रकार वही लिखेगा और फिर गढ़ी जाती है पत्रकारिता की नई परिभाषा....
कभी मिशन के तहत शुरू हुआ ये शब्दजाल अब प्रोफेशन के रूप में पनपता जा रहा हैकभी लोकतंत्र के रक्षक के रूप में खड़ी नजर आने वाली पत्रकारिता अब लोकतंत्र को ही कमजोर करने का काम कर रही हैपिछले लोकसभा,विधानसभा,नगर निगम चुनावों में ये खूब देखा गया मतदाताओं का समर्थन हासिल ना कर पाने वाला एक धनाढ्य प्रत्याशी अपने पैसे की दम पर मीडिया का समर्थन ज़रूर हासिल कर लेता हैपैसे की दम पर कोई भी मुजरिम,बाहुबली अपने पक्ष में लिखवाता हैमीडिया भी विज्ञापन की लालच में उनका जोर-शोर से प्रचार प्रसार करता हैमीडिया द्वारा प्रचारित प्रोपेगंडा इस कदर फैलाया जाता है,कि मतदाता भी भ्रमित हो जाते हैं....
जिसके कारण एक स्वच्छ छवि का प्रत्याशी मुह की खाता है जबकि बाहुबली,अपराधी ,गुंडे सत्ता संभालते है बड़ी विडम्बना है कि जिस लोकतंत्र की स्थापना के लिए पत्रकारिता शुरू की गई थी उसी का दम घोंटने में ये अपना योगदान दे रही हैजिन प्रत्याशियों को दस या सौ वोट भी नहीं मिलते उनको भी हमारे समाचार पत्र,लोकप्रिय प्रत्याशी के नाम से संबोधित करते हैहालांकि मुंबई विधानसभा चुनावों में 'पैड न्यूज़' के मामले में अभी जांच चल रही हैहालिया मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में एक बड़े समाचार पत्र ने कांग्रेस प्रत्याशी का ऐसा विज्ञापन मुख्या पृष्ठ पर दिया लगा जैसे खबर लगी होइससे ज्यादा दूषित पत्रकारिता का नहीं हो सकता
कभी तो शर्मा आने लगती है,इसके वर्तमान पर तो इसके अतीत में झांकता हूँ तो सुखद अहसास का अनुभव होता है आज भी भारत की सवा सौ करोड़ जनता मीडिया के सामने प्यासे पपीहे की तरह ओस की बूंदों के लिए आशा भरी निगाहों से देख रही है की काश पत्रकारिता का चरित्र सुधर जाए और हमें सही खबर मिले
पत्रकारों के लिए
कलम के पहरुओं सजग पत्रकारों
स्याही से कागज़ पर जो कुछ उतारो
हो उसमें समय के विवादों की बातें
विवादों में उद्धृत हो गुमनाम रातें
अगर जागते हो कलम के सिपाही
तो संभव है रुक जाये थोड़ी तबाही
- कृष्ण कुमार द्विवेदी